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अपभ्रंश भारती 21
2.9 घत्ता- (तब) स्त्री-पुरुष का जोड़ा (युगल, मिथुन) आभूषण-विभूषित देह
के द्वारा विविध सुख भोगता है। उनके क्रोध, मोह, भय प्राप्त नहीं होता,
न ही उनके वृद्धावस्था व अकालमरण होता। 3.1 उस काल के बाद सुखमा (सुसमा) काल उत्पन्न हुआ (जिसमें) अत्यन्त
विशाल (व्यापक) सुख हुआ। 3.2 (उस काल में मनुष्य की) ऊँचाई दो कोस थी। (तब उनके) न ही इष्ट का
वियोग था न क्रोध (और) मोह (मूढ़ता, अज्ञान) था। 3.3 वहाँ (मनुष्यों की) आयु दो पल्य थी, सब जन सुख से उत्पन्न भाव से
. (सुखपूर्वक, संतोषपूर्वक) रहते थे। 3.4 तब भरतक्षेत्र में वह (काल) तीन कोडाकोडी सागर प्रमाण कहा गया है। 3.5 (तब) दस प्रकार के कल्पवृक्ष (थे, जो) प्रतिदिन श्रेष्ठ (उत्तम), अद्भुत
आहार देते थे (जिससे लोग) प्रतिदिन निश्चिन्त/चिन्तारहित रहते थे। 3.6 कितने ही (कोई) उत्तम वृक्ष (कल्पवृक्ष) घर, शैया, धान्य (आदि) देते,
कितने ही रात में प्रकाश करते। 3.7 (कितने ही/कोई कल्पवृक्ष) बहुत रस और सुगंधयुक्त खजूर (छुआरा), दाख
(आदि खाद्यपदार्थ) देते, (कोई) युगलों को उत्तम आहार देते। 3.8 वे (कोई) उत्तम वृक्ष (कल्पवृक्ष) वांछा के अनुसार प्रार्थित (चाहे हुए)
रत्नजटित व निर्मित सोलह परिमाण (संख्या तक) आभूषण देते। 3.9 वहाँ युगल (अपनी) देह पर नाना प्रकार के सुगंधित द्रव्य व उत्तम वस्त्र
धारण करते। 3.10 घत्ता- (इन) महान कल्पवृक्ष-काल में उत्पन्न होने के लिए दूसरे/अन्य
(पूर्व के) भवान्तर में सुपात्रों के लिए जो कुछ भाव से (भावपूर्वक) दिया गया दान, (किया गया) पुण्य (व) तीर्थ ही कारण है (यही) विशेषरूप से वांछनीय है।