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________________ अपभ्रंश भारती 21 81 1.14 भव-भव में संन्यास द्वारा दर्शन-ज्ञान-चारित्र (की प्राप्ति) के प्रयास द्वारा मरण होवे। 1.15 मित्रों के लिए (प्रति), शत्रुओं के लिए (प्रति) और कठोर चित्तवालों के लिए (प्रति) मन शांत होवे, परीषह (पीड़ा), रोग (के हेतु) कफ, खाँसी श्वास (आदि) सहन किये जाएँ। 1.16 इस प्रकार (ऐसे) जन्म-मरण-संयोगरूप संसार (एवं) पूर्व में किये कर्म नष्ट किये जायें। 1.17 घत्ता- जिसप्रकार सूर्य (अपने ताप से) तालाब (के पानी) का शोषण करता है (सुखाता है) उसी प्रकार संयम व चारित्र में कुशल (अनुभवी), इन्द्रिय-नियंत्रित किये हुए (अर्थात् संयमी) ऋषि-मुनि (अपनी) तपस्या के द्वारा (पूर्व में) किये गये (किये हुए) कर्मों का और संसार का नाश करते हैं। परमेश्वर (जिनेन्द्र भगवान) के द्वारा कहा गया कालचक्र अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी के छः भेदों में जहाँ कहाँ संस्थित है वह समस्त अभिव्यक्त है। 2.1 परमेश्वर के द्वारा लाया गया यह प्रमुख (एवं) विस्तृत (विषय-प्रकरण) मन से सुन। 2.2 भरत और ऐरावत (क्षेत्र के) दस भागों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल होता है। 2.3 वहाँ सबसे पहला व्यापक (अत्यन्त, उत्तम) सुखवाला 'सुसम-सुसम' नामवाला काल उत्पन्न हुआ। 2.4 उस (काल) में मनुष्यों की देह का प्रमाण (आकार) तीन कोस और आयु . तीन पल्य जानो। 2.5 उस काल में यह समस्त भरतक्षेत्र अद्भुत कल्पवृक्षों द्वारा आच्छादित था। 2.6 (उस काल में) वहाँ सूर्य व चन्द्रमा प्रसार नहीं करते, मनुष्य कल्पवृक्षों द्वारा ही वृद्धि/विकास को प्राप्त करते हैं। 2.7 (उस समय) यह भोगभूमि शांत और समरूप (उत्पातहीन) थी, (जहाँ) जीव अत्यन्त सुख-राशि (आनन्द-समूह) का अनुभव करते हैं। 2.8 उस काल का प्रमाण (समय की अवधि) चार कोडाकोडी सागर'-परिमाण कहा गया है। 1. एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर आगत फल (संख्या) एक कोडाकोडी कहलाता है।
SR No.521864
Book TitleApbhramsa Bharti 2014 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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