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________________ अपभ्रंश भारती 21 है - इसमें कोई सन्देह नहीं (204)। योग वही है जिसमें योगी निर्मल आत्मज्योति का दर्शन करले। जो इन्द्रियों के वश में हैं, वे श्रावक लोग हैं (97)। शून्य - सब द्रव्यों का अभाव शून्य नहीं है, (शून्यवाद में) यह कहा जाता है कि वह सामान्य और विशेष भावों से रहित है; किन्तु जो पाप-पुण्य से रहित निर्विकल्प स्वभावी आत्मा है, वह शून्य है (213)। संसार - जीव का वध करने से नरकगति मिलती है और अभयदान करने से स्वर्ग मिलता है। ये दोनों ही संसार के लिए हैं। इसलिये जो रुचिकर हो उस मार्ग में लगो (106)। अशुभ-शुभ भाव संसार का कारण है। शुद्धभाव निबंध है। हिंसा और हिंसा में आनन्द माननेवाला हिंसानन्दी रौद्रध्यानी होता है। पुण्य - हे सखि? परमार्थ चाहनेवाले को पुण्य-विसर्जन से क्या लाभ? लाभ तो शुद्धात्मा को प्राप्त करने में है (137)। परमार्थी के लिए पुण्य-पाप बराबर है। पुण्य से वैभव, वैभव से अभिमान तथा मान से बुद्धि-भ्रम होता है। बुद्धिविभ्रम से पाप और पाप से नरक गति मिलती है। वह पुण्य हमें न मिले (139)। दो मार्ग - संसार मार्ग और मोक्षमार्ग संसार में दो मार्ग प्रसिद्ध हैं - लौकिक और पारमार्थिक। लौकिक राग . मार्ग है, जो संसार है। पारमार्थिक अध्यात्म प्रधान वीतराग मार्ग है, जो मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग निज आत्म स्वभाव के आश्रय (आत्मानुभूति) से प्रारंभ होता है, जो पाहुडदोहा का केन्द्रबिन्दु है। मुनि रामसिंह कहते हैं - दो रास्तों पर एकसाथ जाना नहीं होता। दो-मुखी सुई से सिलाई नहीं होती। हे अज्ञानी? इन्द्रियों का सुख और मोक्ष दोनों एकसाथ नहीं हो सकते। दोनों में से कोई एक होगा (214)। बिना लक्ष्य के इस जीव ने बीच के मार्ग को अपनाया, किन्तु फल कुछ नहीं मिला (189)। द्वैध परिणति मायाचार का सूचक है। अतः निःशंक हो, सद्गुरु के सत्संग से निज शुद्धात्म स्वभाव के साथ रहने का मार्ग अपनाओ। आत्मा ही गुरु है (115)।
SR No.521864
Book TitleApbhramsa Bharti 2014 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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