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अपभ्रंश भारती 19
1. अभिनव प्राकृत - व्याकरण, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ. 148, तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी,
प्रथम संस्करण, 1963 । वही सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु। वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम्।। वैयाकरण - सिद्धान्तकौमुदी, प्रथमो भागः, अव्ययप्रकरणम्, पृ, 569, रचयिता - श्री भट्टोजिदीक्षित, व्याख्याकार - श्री गोपालदत्त पाण्डेय, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, चतुर्थ संस्करण, 1996। अभिनव प्राकृत - व्याकरण, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ. 213। स्वरादिनिपातमव्ययम्। अष्टाध्यायी, 1.1.37, रचयिता - पाणिनी, परिष्कर्ता - म.म. पण्डितराज डॉ. श्री गोपाल शास्त्री 'दर्शनकेसरी', प्रकाशक - चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 19761 तद्धितश्चासर्वविभक्तिः।
वही, 1.1.38 7. कृन्मेजन्तः।
वही, 1.1.39 अव्ययीभावश्टच। वही, 1.1.41 अव्ययम्। प्राकृत - व्याकरण, 8.2.175; अधिकारोयम् , इतः परं ये वक्ष्यन्ते आ पादसमाप्ते स्तव्ययसंज्ञा ज्ञातव्याः । • वही, 8.2.175 पर वृत्ति, रचयिता - श्री हेमचन्द्र, प्रकाशक - भण्डारकर ऑरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, 1980। • प्राकृत व्याकरण, सिद्धहेमशब्दानुशासन का आठवाँ अध्याय, रचयिता - श्री हेमचन्द्र, संपादक - डॉ. के.वा. आप्टे, प्रकाशक - चौखम्बा संस्कृत भवन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1996।