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________________ अपभ्रंश भारती 19 अक्टूबर 2007-2008 43 सिद्धों और नाथों के साहित्य के सामाजिक संदर्भ - श्री राममूर्ति त्रिपाठी भारतवर्ष अपने मूल स्वभाव में आध्यात्मिक रहा है और है । उसकी अनुभव-साक्षि परात्पर चिन्मय सत्ता में पूर्ण आस्था है, यद्यपि उसका इदमित्थं निरूपण असंभव है तथापि अपनीअपनी पहुँच के अनुरूप चित्त को कहीं एकाग्र करने के लिए गन्तव्य के तीर पर उसे आचार्यों ने लक्षण - लक्षित कर लिया है, साथ ही ऋजु कुटिल नाना पथों का आविष्कार भी कर लिया गया है। हर व्यक्ति गन्तव्य तक अपनी चाल से चलकर पहुँचता है, फलतः यहाँ नाना प्रकार के मतमतान्तरों का जाल फैलता रहा है। एक-एक प्रस्थान की कई-कई अवान्तर शाखाएँ होती गई हैं, कारण है रुचि और संस्कार भेद । यहाँ कोई तत्त्ववेत्ता अपने प्रस्थान को ऐतिहासिक नहीं मानता। सनातनी विद्या की शाब्दी अभिव्यक्तिवाली चाहे ब्राह्मण धारा हो या प्रातिभ अभिव्यक्ति माननेवाली श्रमणधारा । नाथधारा मूल पुरुष मत्स्येन्द्रनाथ थे जिनके शिष्य थे - गोरखनाथ । कुछ विद्वान दोनों को बौद्धसिद्ध परम्परा से जोड़ते हैं, पर अब यह नहीं माना जाता। मत्स्येन्द्रनाथ योगिनी कौम के प्रवर्तक थे, पर गोरखनाथ हठयोग के प्रवर्तक थे और इसकी अनादिता बनाने के लिए शिव से जोड़ लिया गया। हठयोग की साधन-प्रणाली षटचक्र भेद है और फल है सिद्धि । इसकी मूल बात है चन्द्र और सूर्य को समीकृत कर मूलाधार में प्रसुप्त कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर ऊर्ध्व-यात्रा द्वारा सहस्रारस्थ शिव से तादात्म्यापन्न करना ।
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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