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अपभ्रंश भारती 19
मह णव कमल कोमल मणहर वर वहल कन्ति सोहिल्लं । उसहस्स पाय कमलं स सुरासुरं वन्दियं सिरसा ।। " अर्थात् नव कमलों की तरह कोमल, सुन्दर, श्रेष्ठ, अत्यन्त सघन कान्ति से युक्त, सुर और असुरों द्वारा वन्दित, ऋषभ भगवान के चरणकमलों में नमस्कार है। ऋषभदेव की वन्दना के बाद स्वयम्भू मुनि, आचार्य, परमेष्ठी गुरु को नमन कर चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करते हैं। इस स्तुति की एक विशेष शैली है। इसमें प्रत्येक पंक्ति की प्रथम अर्द्धाली में तीर्थंकर को नामपूर्वक प्रणाम किया गया है तथा द्वितीय अर्द्धाली में तीर्थंकर की विशेषता बताई गई है
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पणवेष्पिणु आइ भडाराहो । संसार समुहुत्ताराहो ॥ पणवेप्पणु अजय जिणेसरहो । दुज्जय कन्दप्प दप्पहरहो।।1.1।। अर्थ - संसाररूपी समुद्र से तारनेवाले आदि भट्टारक ऋषभजिन को प्रणाम करता हूँ । दुर्जेय काम का दर्प हरनेवाले अजित जिनेश्वर को प्रणाम कता हूँ ।
तुलसीदास की तरह प्रत्येक काण्ड के प्रारंभ में ईश्वर की संस्तुति के रूप में मंगलाचरण स्वयम्भू ने नहीं दिये हैं। केवल चालीसवीं सन्धि के प्रारंभ में मुनिसुव्रत स्वामी की स्तुति की गई है। यहाँ पर सीताहरण के बाद का प्रसंग प्रारंभ होता है। इसमें पहले एक शब्द में मुनि का विशेषण देते हुए फिर उसकी व्याख्या की गई है।
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असाहणं ।
कसाय- सोय - साहणं ।
अवाहणं ।
पमाय-माय-वाहणं ।
अवन्दणं । तिलोय - लोय - वन्दणं ।
अर्थ - जो साधनरहित हैं, कषाय और शोक का नाश करनेवाले हैं। जो (स्वयं) बाधारहित हैं (पर) प्रमाद और माया के बाधक हैं। जो दुष्टों से अवन्दनीय हैं और तीन लोक द्वारा वन्दनीय हैं।
यहाँ पर यमक का चमत्कार दिखाया गया है।
पच्चीसवीं सन्धि के आठवें कडवक में बीस तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ तथा मुनिसुव्रत इन बीस तीर्थंकरों की स्तुति उनके नाम के अर्थ की विशेषता से जोड़ते हुए की गई है, जैसे -
जय संभव-संभव णिद्दलण 125.8.31 अर्थात् जन्म का नाश करनवाले हे संभव, आपकी जय हो ।
जय सुमइ भडारा सुमड़ कर 125.8.41