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________________ 8 ण णिसुणिउ पंच-महाय कव्वु । णउ भरहु गेउ लक्खणु वि सव्वु । उ बुज्झिउं पिंगल पत्थारु । णउ भम्मह - दंडि अलंकारु ।1.3 । जैसी पंक्तियों की सर्जना द्वारा मानो बुधजनों के प्रति विनती, अपनी दीनता और काव्य - विद्या से अनभिज्ञता प्रदर्शित करने की परम्परा का श्रीगणेश करते हैं; और, काव्य को नाना पुराणनिगमागम 'सामण्ण भास छुडु सावडउ, छुडु आगम जुत्ति का वि घडउ' प्रेरित स्वीकारते हुए अपनी भाषा को 'सामण्ण भास' घोषित करते हुए 'गामिल्ल भास' के परिहरण की बात भी करते हैं। डॉ. भागीरथ मिश्र लिखते हैं " एक बात और इनकी रचनाओं में प्राप्त होती है और वह है बोलचाल या लोकभाषा में काव्य-रचना की प्रेरणा । " " काव्य-कर्म में उनकी रुचि उन्हें सर्जना की दिशा में प्रेरित करती है; और वे अपना 'व्यवसाय' काव्य-कर्म नहीं छोड़ना चाहते - अपभ्रंश भारती 19 - - ववसाउ तो वि णउ परिहरमि । वरि रड्डावधु कव्वु करमि ।1.3.9 । तेईसवीं सन्धि के आरंभ में रसायन - रामायण की कथा पुनः प्रारंभ करते हुए स्वयंभू पुनः अपने को व्याकरणहीन, कवि-कर्मविहीन घोषित करते हैं - तो कवणु गणु अम्हारिसहिँ । वायरण विहूणे हिँ आरिसहिं । 23.1.3। - - कवि स्वयंभू का लक्ष्य स्पष्ट है 1. काव्य-कर्म के प्रति संकल्पबद्धता का निर्वाह, 2. जिनशासन में वर्णित 'राम कथा' सुनना-सुनाना - सासणेंहिं, पर परमेसर सुव्वाइ विवरेरी । कहें जिणें - सासणें केम थिय कह, राहव - केरी।1.9.9। निराला जिसे 'कला' कहते हैं वह काव्य का सौन्दर्य है। 'कला केवल वर्ण, शब्द, छन्द, अनुप्रास, रस, अलंकार या ध्वनि की सुन्दरता नहीं, किन्तु इन सभी से सम्बद्ध सौन्दर्य की पूर्ण सीमा है। " 3 शब्द, अर्थ, छन्द, प्रबंध, भाव, रस, दोष, गुण के अनेक भेदों का ज्ञान कवि - विवेक है। इन सबका प्रयोग स्वयंभू 'राहवकथा' के चित्रण में ही करना चाहते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी स्वयंभू को शास्त्रीय - परम्परा के कवियों में मान देते हैं " स्वयंभू लोकभाषा के प्रेमी थे परन्तु रससृष्टि के अभिजात जनोचित नियमों के परिपालक भी थे।" आचार्य द्विवेदी स्वयंभू के 'हरिवंशपुराण' के अंशों को उद्धृत करते हैं- “उन्हें इन्द्र से व्याकरण, व्यास से विस्तरण, पिंगल से छन्द और प्रस्तार - विधि, भामह - दण्डी से अलंकरण, बाणभट्ट से घनघनित शब्दाडम्बर, हरिसेन तथा अन्य कवियों से कवित्व गुण और चउम्मुह से छन्दज, द्विपदी और ध्रुपदों से जड़ित पद्धड़िया बन्ध प्राप्त हुआ । ” 4 स्वयंभू के काव्य में इस गम्भीर अध्ययन-मनन -
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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