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अपभ्रंश भारती 19
63. जिम चिंतिज्जइ घरु-घरिणि, तिम जइ पर-उवयारु।
तो णिछइ ‘सुप्पउ भणई', खणि तुट्टइ. संसारु॥63॥
अर्थ - जिस प्रकार घर और घरिणि की चिंता/चिन्तन विचार किया जाता है यदि उसी प्रकार दूसरों के हित की/पर-उपकार की (चिंता-चिन्तनविचार किया जाये) तो सुप्रभ कहते हैं - निश्चित ही/अवश्य ही, शीघ्र ही/ क्षणभर में ही संसार (का बंधन) टूट जाय।
64. णिच्चल संपइ कस्स घरे, जइ केण वि कहि दिट्ठ।
करउ णिवि ‘सुप्पउ भणई', तो वोलंतु व सिट्ठ॥64॥
अर्थ - कहो ! (इस जगत में) कहीं, किसी के द्वारा किसी के घर में स्थिर-अचंचल संपत्ति देखी गई है! सुप्रभ कहते हैं - (विशेष) तप करो जिससे अति उत्तम कहलाओ/कहला सको।
णिव्वि = तप विशेष