SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 116 अपभ्रंश भारती 19 15. 'सुप्पय' पुत्त-कलत्त जिम, दव्वु वि हिंजवि लिंति। तिम जइ जम्मण-जर-मरणु, हरहिं व इट्ट न भंति॥15॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - जिस प्रकार स्त्री-पुत्र (आदि) द्रव्य (धन) को हरकर ले लेते हैं उसी प्रकार जितेन्द्रिय साधु (यति) विशेष तपस्या के द्वारा जन्म-जरा (बुढ़ापा) (और) मरण का हरण कर लेते हैं, (इसमें कोई) भ्रांति नहीं है। हिंज्जवि = हरण करके, इ8 = तप विशेष 16. जइ सुद्धउ धणु वल्लहउ, मित्त म दिंतु विसूरि। लइ लाहउ ‘सुप्पय भणई', जमु नेडा घर दूरि॥16॥ अर्थ - हे निर्दोष यति ! त्याग किये हुए धन (के लिए), प्रिय (के लिए), स्वामी (और) मित्र के लिए दुःखी मत हो। (अपनी यति अवस्था का) लाभ ले ले। सुप्रभ कहते हैं - मृत्यु निकट/पास है और (निज) घर (मोक्ष) दूर है।
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy