SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 114 अपभ्रंश भारती 19 11. अरि जिय तं तुहुं किं पि करि, जं सुयणहं पडिहाइ। मणु विसयहं हवि इंधणहं, मि-तन धव णहं जाइ॥11॥ अर्थ - हे जीव ! तू कुछ भी वह कर (बस वही कर) जो सुजन/ सज्जनों के अनुरूप (योग्य) प्रतीत होता है। इस मन को/मनुष्य पर्याय को विषय-भोगों की अग्नि में ईंधन (जलावण) (बनायेगा तो तू यह) जान (फिर इस) मिट्टी के तन का स्वामी (कोई) नहीं है। मि = मिट्टी, तन = शरीर 12. हियडा काई चडपडहिं, घरु परियणु चिंतंतु। किं न पेखहि ‘सुप्पउ भणई', जगु जगडंतु कयंतु॥12॥ . अर्थ - हे मन ! घर-परिजनों की चिन्ता करते हुए क्यों छटपटाते रहते हो (क्यों परेशान रहते हो)! सुप्रभ कहते हैं - यह क्यों नहीं देखते (समझते) (कि) (सारे) संसार को मृत्यु/मरण पीड़ित कर रहा है !
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy