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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 65 करो। इन वचनों से वहाँ घर में आनन्द से आसन चलायमान हुआ। जिसके माता-पिता जिनेन्द्र की पूजा करते है और हम सेवा करते है दूध की धारा से नित अभिषेक कर रविव्रत का उद्यापन करते है।।45-47।। 48-49 उस बालक की कथित स्थिति से बाड़े का वह प्रधान हुआ। ऐसा कहकर नागराज पदमावती के साथ चला गया। हाय-हाय कुमार को डसकर उसमें बालक के गुण भर दिये। ये कौनसा प्राणी है जिसने मेरा आसन भली प्रकार कंपित कर दिया।।48-49॥ 50-51 ऐसा कहकर पंच कल्याण मयी बिम्ब मोतियों के हार से सुशोभित बालक के . लिए अर्पित कर दिया और दूसरे पाँच पदार्थ स्वर्णमय कुल्हाड़ी क्षणभर में लेकर पृथ्वी पर वायु के समान सुशोभित रहो मन में शंका मत करो।।50-51 ।। 52-53 उसे लेकर कुमार घर आया और उसने बन्धुजनों के लिए अर्पित किया। बन्धु देखकर काँपे और अपने संसार में रहने के स्थान पर गये। आनन्दित होकर उसके द्वारा सारा वृत्तान्त कहा गया। हर्ष उनके अंगों में नहीं समाया। उन्होंने जिण मन्दिर में मूर्ति स्थापित कर दी।।52-53॥ 54-55 प्रतिदिन उनकी आराधना करते है मन लगाकर उनकी पूजा करते है। विनय युक्त मन से चार संघ को दान देते है। सभी के और राजा के मन में अचम्भा हुआ। जो दरिद्रता से लिप्त है वे मेरे नगर में आये।।54-55।। 56-58 वे गरीब घर से सम्पत्ति ले इन्होंने कहीं से पाई है। ऐसा सुनकर राजा के दास समूह ने तुरन्त घात किया और तुम्हें राजा बनाकर क्या वेग से चला नहीं गया। अरथ पदारथ को लेकर क्षणभर जिनेन्द्र के पास रहता है और मधुर वचनों से उसने कहा सब लेते हो की नहीं। हम सब राजा के किंकर नौकर है क्लेश मत करो।।56-58।।
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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