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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 के पेड़ों में नये किसलय फल-फूलों से लद रहे थे। कहीं कान्तिरहित पहाड़ों के शिखर काले रंगवाले दुष्ट मूर्खो की तरह दिखाई दे रहे थे। कहीं-कहीं वैशाख माह की गर्मी से सूखी हुई धरती ऐसी जान पड़ती थी मानो प्रिय-वियोग से पीड़ित कामिनी हो । 51 कवि को बसन्त ऋतु का वर्णन कुछ अधिक ही प्रिय लग रहा है, क्यों न हो लोक में बसन्त की अतिशय महत्ता को देखते हुए इसे अस्वाभाविक भी तो नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए स्वयंभूदेव ने पउमचरिउ के प्रथम काण्ड (विद्याधर काण्ड) में ही बसन्त का वर्णन करते हुए लिखा है पङ्कय- वयणउ कुवलय-णयणउ केयइ - केसर - सिर-सेहरु । पल्लव करयलु कुसुम-णहुज्जलु पइसरइ वसन्त - णरेसरु ॥14.1.9॥ अर्थात् बसन्त किस तरह से संसार में प्रविष्ट हुआ- कमल उसका मुख था; आँख के रूप में कुमुद, केतकी पराग के रूप में; सिर शेखर - सिर मुकुट; पल्लव करतल और फूल उसके उज्ज्वल नख थे। उसके बाद भी कवि की बासन्तिक अभि-लाषा समाप्त नहीं होती। वह बराबर बसन्त का वर्णन नए-नए स्वरूप में करता रहता है। दरअसल कवि- समाज के लिए बसन्त जैसे प्रकृति का दूसरा नाम ही है, इस तरह से स्वयंभूदेव के लिए भी है। दूसरी ऋतुओं का वर्णन भी देखने को मिल जाता है तथापि वह स्वाद बदलने की तरह ही है। पउमचरिउ का लेखक बराबर लोक में दृष्टि रखता है। नारी अंग-प्रत्यंग पर भी उसकी दृष्टि रही है। केवल पउमचरिउ से नारी सौन्दर्य के प्रकार देखना हो तो वह दर्जन से ऊपर के प्रकारों में वर्णित है। दूसरी तरफ जब वह परलोक की बात करता है तो लगता ही नहीं है कि यह वही कवि है- को कासु सव्वु माया - तिमिरु । जल-1 न-बिन्दु जेम जीविउ अ-थिरु ॥ सम्पत्ति समुद्द-तरङ्ग णिह । सिय-चञ्चल विज्जुल लेह जिह ॥ जब गिरि-इ- पवाह- सरिसु । पेम्मु वि सुविणय - दंसण- सरिसु ॥ धणु सुर- धणु - रिद्धिहें अणुहरइ । खणें होइ खणद्धे ओसरइ ॥ झिज्जइ सरीरु आउसु गलइ । जिह गउ जल- णिवहु ण संभवइ ॥ 54.5॥ अर्थात् कौन किसका है, यह सब माया का अंधकार है। जीवन जल की बूँद की तरह अस्थिर है। सम्पत्ति समुद्र की लहर की तरह है । लक्ष्मी बिजली की रेखा की तरह चंचल है। यौवन पहाड़ी नदी के प्रवाह के समान है। प्रेम भी स्वप्न-दर्शन की तरह है। धन इन्द्रधनुष के समान है, क्षण में आता है और क्षण में जाता है। शरीर का प्रतिक्षण नाश हो रहा है, आयु गल रही है।
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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