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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 7. 24. दुट्ठ पक्खु ण कयावि धरेवउ। महापुराण (28.8.13) - दुष्ट का पक्ष कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। 25. उण्णई पावइ गुण गरुयउ गुणि। महापुराण (30.9.10) - गुणी महान् गुणों से उन्नति पाते हैं। जो सूरउ जो इंदियइं जिणइ। महापुराण (39.9.1) - शूर वही है जो इन्द्रियों को जीतता है। उज्जयमणु जं गुणभावणु तं माणुसु सुकुलीणउ। महापुराण (39.9 घत्ता) - जो सरल मन और गुणों का भाजन है वही मनुष्य कुलीन है। . जइ णत्थि संति तो पडइ मारि। महापुराण (52.1.13) - जहाँ शान्ति नहीं होती, वहाँ आपत्ति आती है। 29. रोसवंतु णरु कह वि ण रुच्चइ। - क्रोधी व्यक्ति किसी को भी अच्छा नहीं लगता। 30. रोसु करइ बहु आवइ संकडु। महापुराण (60.23.3) - क्रोध कई आपत्तियाँ और संकट उत्पन्न करता है। 31. धणदूसणु सढखलयण भरणु। महापुराण (69.7.4) - कुटिल और दुष्ट लोगों का पालन करना धन का दूषण है। अलसहु सिरि दूरेण पवच्चइ। महापुराण (71.21.7) - आलसी व्यक्ति से लक्ष्मी दूर रहती है। 33. विणु जीवदयाइ ण अत्थि धम्म। महापुराण (84.1.9) - जीव-दया के बिना धर्म नहीं होता। 34. किं पिसुणयणेण खमाविएण। महापुराण (93.13.6) - दुष्ट आदमी से क्षमा माँगने से क्या? 35. विणु मणसुद्धिइ कहिं धम्मसिक्ख। महापुराण (101.2.4) - मन की शुद्धि के बिना धर्म की शिक्षा नहीं होती। अविणीयं किं संबोहिएण। जसहरचरिउ (1.20.2) - जो विनयहीन है उसे सम्बोधित करने से क्या फल? 22. 36.
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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