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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 जहि जहि संघल सत्तु घल तँहि तँहि पल तरवारि। सोणित मज्जिअ मेइणी कित्तिसिंह कतु मारि ।।4.190-91।। अन्त में, मलिक असलान स्वयं आकर कीर्तिसिंह से लड़ने लगता है पर तुरन्त ही पीठ दिखाकर भागने लगता है। भागते असलान से कीर्तिसिंह कहते हैं- जिस हाथ से तूने मेरे पिता को मारा, वह हाथ अब क्या हो गया? यदि तू भागकर जीना चाहता है तो जा भाग, तुझे जीवनदान देने से मेरी कीर्ति त्रिभुवन में बनी रहेगी- . जइ कं जीवसि जीव गए जाहि जाहि असलान। तिहुअण जग्गइ कित्ति मझु तुज्झ दिअउ जिवदान॥4.247-48 ।। - इस प्रकार, कीर्तिसिंह युद्ध में विजयी होकर लौटते हैं। वेद-मंत्रों के बीच शुभ मुहूर्त में उनका राज्याभिषेक होता है। बन्धु-बान्धवों में उल्लास और उत्साह तरंगित हो उठता है। तिरहुत की विलुप्त श्रीशोभा और गरिमा पुनः लौट आती है। बादशाह इब्राहीम शाह तिलक लगाते हैं और कीर्तिसिंह मिथिलेश बन जाते हैं। कविकोकिल कृत 'कीर्तिलता' की कीर्ति-कथा का यहाँ सुखान्त समापन होने के बाद भी उसकी मणिमण्डित सूक्तियाँ पाठकों के मन-मस्तिष्क और अन्तस्तल में उत्कीर्ण होकर झिलमिलाती रहती हैं। यहाँ कुछ ऐसी ही अविस्मरणीय सूक्तियाँ द्रष्टव्य हैं अवसओ विसहर विस वमइ, अमिों विमुंचइ चंद।1.20। - विषधर निश्चय ही विष उगलता है, चन्द्रमा अमृतवर्षण करता है। पुरिसत्तणेन पुरिसो णह, पुरिसो जम्मत्तेण।1.46। इअरो पुरिसाआरो, पुछ विहूणो पसू होइ।1.49। - पुरुष वह जिसका सम्मान हो, जो अर्जन की शक्तिवाला हो। इतर पुरुषाकार लोग पुच्छहीन पशु की तरह हैं। जलदाणेन हु जलदो, नइ जलदो पुंजिओ धूमो।1.47। - जलदान से जलद जलद है, धूम का पुंज जलद नहीं है। मान विहूना भोअना, सत्तुक देओल राज।2.35। सरण पइट्टे जीअना, तीनू काअर काज।2.36। - मानहीन भोजन करना, शत्रु का दिया हुआ राज्य लेना और शरणागत होकर जीना- ये तीनों कायरों के कार्य हैं। अवसओ उद्दम लच्छि बस, अवसओ साहस सिद्धि ।2.75। पुरुस विअख्खण जं चलइ तं तं मिलइ समिद्धि ।2.76।
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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