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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 31 होता है कि विद्यापति न केवल भक्ति और शृंगार के अनुपम चितेरे हैं वरन् प्रथम श्रेणी के किसी भी अधुनातन यथार्थवादी कथाकार से ज्यादा ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हैं। मैं अत्यन्त विश्वास के साथ कहना चाहता हूँ कि सूक्ष्म यथार्थ चित्रण की दृष्टि से सम्पूर्ण 'कीर्तिलता' अद्भुत है __ ....अहो, अहो, आश्चर्य। वहाँ प्रमुख द्वार की ड्योढ़ी में नंगी तलवारें लिये द्वारपाल खड़े थे।.... शाही महल का लम्बा-चौड़ा मैदान, दरगाह, दरबारे आम, नमाजगृह, भोजन-गृह और शयन-गृह के विचित्र चमत्कार देखते हुए सभी कहते कि बहुत अच्छा है। प्रासादों के ऊपर हीरों से जटित सुनहले कलश सुशोभित हो रहे थे।' तीसरे पल्लव में भंगी कहती है- हे कान्त, तुम्हारे कहने से कान में अमृत रस का प्रवेश हो गया, अतः हे विचक्षण फिर कहो! अगला वृत्तान्त शुरू करो कहहु विअष्खण पुनु कहहु किमि अग्गिम वित्तन्त। आगे इसमें जौनपुर के वजीर और बादशाह इब्राहीम से कीर्तिसिंह के मिलने की कथा कही गयी है। असलान के कुकृत्य को सुनकर बादशाह कुपित होते हैं और तिरहुत-प्रयाण का आदेश देते हैं, जिससे कीर्तिसिंह व उसका भाई बहुत प्रसन्न होते हैं। बाद में पूर्व के लिए सजी सेना का पश्चिम पयान हो जाता है और कीर्तिसिंह दुःखी हो जाते हैं। उनके मनोबल को बढ़ाता हुआ मंत्री कहता है- 'गुणियों को इस तरह के दुःख की परवाह नहीं करनी चाहिए।' इस तीसरे पल्लव में सुलतान के सैन्य प्रयाण, प्रजा के कष्टों और अन्त में दोनों भाइयों के दुःख-द्वन्द्व और अर्न्तद्वन्द्व का अत्यन्त यथार्थ और मर्मान्तक चित्रण किया गया है, यथा ....बान के लिए सोने का टका दीजिये। ईंधन चन्दन के भाव बिकता। बहुत पैसा देने पर थोड़ा अन्न मिलता; घी के लिए घोड़ा देना पड़ता। बाँदी और बैल महँगे दामों में मिलते।....(3.97-102)' ....दोनों भाई द्वीप-दिगन्तर में घूमते रहे। तुर्कों के साथ चलते समय बड़े कष्ट से अपने आचार की रक्षा की। राह के लिए पाथेय समाप्त हो जाने के कारण शरीर कृश हो गया। वस्त्र पुराने हो गये। यवन स्वभाव से ही निष्करुण होते हैं। सुलतान ने स्मरण भी नहीं किया।....(3.104-107)' अन्ततोगत्वा, दोनों भाई पुनः सुलतान से मिलते हैं जिससे अच्छा समय लौट आता है। सुलतान के आदेश से सेना तिरहुत की ओर चल पड़ती है। कीर्तिसिंह रण के उत्साह से भर उठते हैं।
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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