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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 और अपने स्वाभिमान का परित्याग नहीं करती। वह रावण को उलाहना देती है किभले ही रावण देवताओं के लिए दुर्जेय हो, परन्तु उसकी अपेक्षा चंचुजीवी जटायु का ही सुभटत्व श्रेष्ठ है जो सीता की सुरक्षा के लिए रावण से ऐसे समय भिड़ गया है जब इन्द्रादि देवसमूह भी उसकी रक्षा के लिए आगे नहीं आया है अहो अहो देवहाँ रणे दुवियड्ढहाँ। णिय परिहास ण पालिय सण्ढहाँ॥ वरि सुहडत्तणु चंचु-जीवहों। जो अभिटु समरे दसगीवहाँ।।38.14.2-3 लंका में प्रवेश करने से वह स्पष्टत: इन्कार कर देती है। परिणामतः रावण को उसके लिए नगर से बाहर निवास की व्यवस्था करनी पड़ती है। यहाँ यह भी उल्लेख्य है कि रावण सीता को उसके द्वारा इतना विरोध करने पर भी मारना नहीं चाहता, क्योंकि वह सोचता है कि इसे मारने पर मैं इसका सुन्दर मुँह नहीं देख पाऊँगा"। फिर रावण और रावण की आज्ञा से मन्दोदरी तथा रावण के अन्यान्य परिजनों- सेवकों द्वारा उसे अनेक प्रलोभन दिये जाते हैं, प्रलोभनों से आकृष्ट न होने पर कष्ट पहुँचाया जाता है तब अपनी पीड़ाओं और विपत्तियों को पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल मानकर 'एयइँ दुक्कियकम्महो फलइँ वह जरूर कहती है परन्तु इस विषम परिस्थिति में भी भय और दैन्य से रहित होकर निडरता से उनका सामना करती है। नन्दनवन में मन्दोदरी रावण के ऐश्वर्य, वैभव को दर्शाते हुए रावण की अतिशय प्रशंसा करके सीता को रावण को स्वीकारने के लिए उत्प्रेरित करती है और सीता के न मानने पर उसे नाना प्रकार के भय दिखाती है तब सीता उसे फटकारती है और कहती है कि- तुम्हारे द्वारा अपने पति के लिए जो दौत्यकर्म किया जा रहा है वह अनुचित है, निन्दनीय है। अपने पति के प्रति मैं सर्वतः एकनिष्ठ हूँ। तुम मुझे आरे से काटो, शूली पर चढ़ाओ, जलती हुई आग में फेंकदो, महागज के दाँतों के बीच डालदो पर तुम्हारा यह प्रस्ताव मुझे स्वीकार नहीं हैजइ वि अज्जु करवतेंहिँ कप्पहो। जइ वि धरेवि सिव-साणहों अप्पहो॥ जइ वि वलन्तें हुआसणे मेल्लहो। जइ वि महग्गय-दन्तेहिं पेल्लहो । तो वि खलहों तहाँ दुक्किय-कम्महो। पर-पुरिसहो णिवित्ति इह जम्महो॥41.13.3-5 सीता की यह स्पष्टोक्ति उसके शील व चारित्र्य की अभिव्यक्ति करती है, उसके चरित्र की दृढ़ता को भी व्यक्त करती है। साथ ही मन्दोदरी को भी एक स्त्री के रूप में उसके कर्त्तव्य की याद दिलाती है कि पति की दूती बनकर पराई स्त्री के पास जाना गलत है। वह केवल रावण की पत्नी ही नहीं, एक स्त्री भी है। वह मन्दोदरी से ही नहीं, रावण से भी इसी शैली में बात करती है। वह उद्घोषणा करती है कि रावण की सम्पूर्ण सम्पदा उसके लिए तिनके के समान है। उसका राजकुल श्मशान की तरह और यौवन विष-भोजन के समान है
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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