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अपभ्रंश भारती 17-18
इन पंक्तियों में कवि नरेश मेहता जिस पीड़ा को आत्मसात् करने की साधना की बात करते हैं भारतीय नारी युगों-युगों से उस पीड़ा को सहती आई है। यह बात अलग है कि युग-युगान्तर से पीड़ित होने पर भी वह सदैव शक्तिसम्पन्न होकर अपनी अस्मिता को भी सिद्ध करती रही है। आधी दुनिया की यह प्रतिनिधि सामाजिक बन्धनों की मार झेलती हुई एक ओर हाशिए में भी अपना स्थान सुरक्षित नहीं पाती और दूसरी ओर 'देवी' पद पर भी प्रतिष्ठित की जाती रही है। यानी एक सामान्य मनुष्य के रूप में उसकी पहचान एक छलावा या सपना ही है। महादेवी वर्मा का यह कथन इस परिप्रेक्ष्य में बहुत सटीक है- इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अगर भारतीय नारी की स्थिति पर विचार करें तो हमें खेद और आश्चर्य दोनों होते हैं। एक ओर तो उसे सीधे स्वर्ग में स्थापित किया गया जहाँ से वह धरती पर पैर उतार ही नहीं सकती थी, दूसरी ओर इतने गहरे पाताल में डम्प कर दिया है जहाँ से वह इंचभर भी ऊपर नहीं उठ सकती। उसके दोनों रूप एक-साथ हमारे सामने हैं और समाज में पलते हैं। समाज ने उसे वह अधिकार भी नहीं दिया जो द्वितीय श्रेणी के नागरिक को मिलता है। व्यक्ति के रूप में उस पर विचार ही नहीं किया। सम्पत्ति के रूप में विचार किया गया है। पुरुष का मान, सम्मान, मर्यादा यहाँ तक कि वैर, प्रतिशोध सब कुछ स्त्री पर निर्भर है अर्थात् जैसे वह सम्पत्ति से व्यवहार करता है वैसे ही स्त्री से करेगा । स्वतन्त्र रूप से वह (स्त्री) व्यक्ति नहीं है। 2
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स्त्री-विमर्श केन्द्र में है नारी अस्मिता की तलाश और नारी स्वयं भी अपनी अस्मिता और आत्मसम्मान के प्रति सचेत है। वह समाज को दिशा-निर्देश देने में, निराशा में आशा का संचार करने में, आवश्यकता पड़ने पर युद्धक्षेत्र में अपनी मातृभूमि, सतीत्व और धर्म की रक्षा करने में तत्पर होने में, मानवता का सन्देश देने में एक प्रेरक शक्ति का काम करती रही है, इतिहास इस बात का गवाह है, पर दूसरी ओर वह यह भी जानती है कि 'विस्मृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना' और इतिहास इस तथ्य के भी साक्ष्य देता है।
भौतिकवादी युग की चकाचौंध से प्रभावित हमारा समाज आज आधुनिक और प्रगति शील होने का दावा करता है और इसी के तहत स्त्री-पुरुष की समानता की भी बात करता है। स्वयं स्त्रियाँ भी यह उद्घोषणा करती हैं
हम औरतें
महज सिन्दूर, मंगलसूत्र,
बेलन, थाली, चिमटा और
नाक की नथ ही नहीं हैं;