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________________ 79 अपभ्रंश भारती 13-14 तम्बाकू, चाय, शराब आदि की लत पड़ जाती है उनके एन्द्रियक तन्तुओं में निर्धारित समय पर इन द्रव्यों के भोग की उत्तेजना पैदा होती है और तब उन्हें बरबस इनका सेवन करना पड़ता है। इसी प्रकार जिन्हें अधिक भोजन करने की या अधिक काम सेवन करने की आदत पड़ जाती है उनकी इन्द्रियाँ उतने ही भोजन और उतने ही काम सेवन की माँग करने लगती हैं। इसे मनोविज्ञान की भाषा में प्रतिबद्धीकरण कहते हैं । 23 भोगाभ्यास हो जाने पर इन्द्रियों का अपना एक अलग विधान हो जाता है। पहले वे मन के अनुसार चलती हैं। बाद में मन को अपने अनुसार चलाने लगती हैं और उनकी चालक शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि न चाहते हुए भी मन को बलपूर्वक अपनी ओर खींच लेती है। यह तो सर्वविदित है कि मन ही हमारे समस्त कार्यों का स्रोत है । मन ही इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त करता है पर इस तथ्य की ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है कि इन्द्रियाँ भी मन को बलात् अपने विषयों की ओर आकृष्ट कर लेती हैं। 24 'गीता' में यह तथ्य स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया गया है। - यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।।2.60 ।। - हे अर्जुन ! समझदार मनुष्य भी इन इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करे तो भी प्रचण्ड इन्द्रियाँ मन को जर्बदस्ती विषयों की ओर खींच ले जाती हैं। यही कारण है कि कई बार लोग बीड़ी, सिगरेट, शराब की आदि हानियों से सचेत होकर जब उन्हें छोड़ने का बार-बार प्रयत्न करते हैं पर छोड़ नहीं पाते। इसलिए जहाँ यह सत्य है कि इन्द्रियों के विषय विरक्त हो जाने पर भी मन का विषय - निवृत्त होना निश्चित नहीं है, वहाँ यह भी सत्य है कि मन के विषय - विरक्त हो जाने पर भी इन्द्रियों का विषय- निवृत्त होना अनिवार्य नहीं है । इच्छाओं के दो स्रोत हैं- विषय-राग तथा इन्द्रिय-व्यसन । इनमें विषय-राग तो ज्ञान से नष्ट हो जाता है पर इन्द्रिय- व्यसन की निवृत्ति के लिए पहले पदार्थों के हानिकारक स्वरूप की समझ हो अनन्तर ऐन्द्रियक नाड़ीतन्त्र में होनेवाले उद्दीपन अर्थात् 'तलब' को पूर्ण न करने का प्रयास किया जाये। ऐसा करने से नाड़ी तन्त्र में विकसित 'तलब' के संस्कार धीरे-धीरे शिथिल होकर नष्ट हो सकेंगे। इसके लिए विकल्प भी अपनाये जा सकते हैं। जैसे - इन्द्रियव्यसन की इच्छा होने पर उसे सन्तुष्ट न करते हुए अहानिकर पदार्थ का सेवन किया जाये अथवा मन को अन्य किसी रुचिकर कार्य में लगाया जाय । यह कार्य आरम्भ में कष्टदायी प्रतीत होता है पर इन्द्रियों को विषयजन्य उत्तेजना की सामग्री न मिलने से वह क्षीण होती जाती हैं । नाड़ीतन्त्र की विकृत अवस्था में बदलाव आता है। परिणामस्वरूप यह इन्द्रियव्यसन एक दिन पूर्णरूपेण समाप्त हो सकता है । इसी प्रकार समस्त इन्द्रिय-विषयों के
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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