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अपभ्रंश भारती 13-14
जन्मों की समग्र कथा सुना देते हैं। उसे सुनकर राजा मारिदत्त पश्चात्ताप करते हैं। अन्त में राजा मारिदत्त भैरवानन्द, रानी उन क्षुल्लकों के गुरु सुदत्त के समीप जाकर दीक्षा धारणकर स्वर्ग जाते हैं।
प्रस्तुत कथा में राजा यशोधर मात्र इन्द्रिय-विषय-सुख की तीव्र कामना के कारण ही माता के कहने पर संकल्पपूर्वक आटे के मुर्गे की बलि देता है और कई भवों तक सुख के बदले दुःखों को भोगता है। दुःखों का कारण इच्छा है। इच्छाएँ जितनी अधिक होंगी आकुलता भी उतनी ही अधिक होगी। इच्छाएँ जितनी कम होगी उतना ही अधिक निराकुलता का अनुभव होगा। इच्छाओं के पूर्णतः अभाव होने पर पूर्ण निराकुलता का आविर्भाव होता है। निराकुलता ही यथार्थ सुख है और इसे प्राप्त करना प्राणी का लक्ष्य है। पण्डित दौलतराम जी ने छहढाला में कहा है -
आतम को हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिय।
आकुलता शिव मांहि न तातै शिवमग लाग्यौ चहिए ।।3.1 ।। ___ इससे स्पष्ट है कि निराकुलता ही सुख है। निराकुलता राग-द्वेष-रहित होने/वीतरागता आने पर ही मिलती है। वीतरागता की प्राप्ति भी इच्छाओं के अभाव/विसर्जन से होती है। यही मुक्ति की साधना है। मानव मुक्ति की साधना के पथ पर चले इस दृष्टि से महाकवि ने 'जसहरचरिउ' में पहले इच्छाओं को दुःख का कारण निरूपित कर उन्हें संयमित करने की प्रेरणा दी है जो क्रमशः विचारणीय है।
राजा यशोधर जब अपनी पत्नी का एक कुबड़े के साथ दुराचार देख लेता है तब वह विचार करता है -
जीवहु परु दुक्कियघरु विच्छिण्णउ वाहायरु ।
इंदियसुहु गरुयउ दुहु किह सेवइ पंडियणरु ॥2.10.16-17 ॥
- इन्द्रिय सुख महान् दुःख है। जीव के लिए दुष्कर्मों का घर है तथा महान् बाधाएँ उत्पन्न करता है। पण्डित पुरुष इसमें कैसे पड़ जाता है ?
इच्छाएँ दुःख का कारण है। इनसे निवृत्ति के दो उपाय हैं - इन्द्रिय-संयम और विषयों से वैराग्य । इन्द्रिय-संयम का अर्थ है इन्द्रियों को बलपूर्वक विषय-भोगों से दूर रखना। इसे इन्द्रिय-दमन और इन्द्रिय-निग्रह भी कहते हैं।
आधुनिक युग के मनोविश्लेषक फ्रायड ने इन्द्रिय-दमन की कटु आलोचना करते हुए इसे सभ्य समाज का अभिशाप सिद्ध किया है। उसके अनुसार शारीरिक और मानसिक रोगों, हत्या व आत्महत्याओं, पागलपन आदि बीमारियों के कारणों में इन्द्रिय-दमन प्रमुख है। इच्छाओं के दमन से व्यक्तित्व अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त हो जाता है। प्राकृतिक मन और नैतिक मन