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________________ अपभ्रंश भारती 13-14 65 से लग (भिड़) रहे हैं। गात्र टूट रहे हैं, मुंड फूट रहे हैं। रुण्ड दौड़ रहे हैं और शत्रु स्थानको पा रहे हैं। आँतें निकल रही हैं, रुधिर से सन रही हैं। हड्डियाँ मुड़ रही हैं, ग्रीवाएँ टूट रही हैं । करकंड और मदनावली के विवाह के समय तो लोकाचार, विवाह की रीतियाँ तथा लोक-संस्कृति ही ज्यों-की-त्यों चित्रित हो गई है; लोक-जीवन का यह मधुर संस्पर्श बड़ा मोहक तथा भव्य बन पड़ा किय हट्टसोह घरि तोरणाइँ । संबद्धइँ तहो करकंकणाइँ ॥ णाणाविह वज्जइँ वाइयाइँ । गीयाइँ रसालइँ गाइयाइँ | भावड्ढइँ णच्चइँ णच्चियाइँ । गयतुरयहँ थट्टइँ खंचियाइँ ॥ उग्घाडिउ मुहवडु विहिं जणाहँ । णं मोहपडलु तग्गयमणाहँ ॥ घयजलि अजलणभामरिउ सत्त । देवाविय भट्टहिं पढिवि मंत ॥ करु बालहे अप्पिउ णववरेण । किय सवहणाइँ दाहिणकरेण ॥13.8 ॥ यहाँ घर-द्वार की सजावट, तोरण लगना, हाथों में कँगन बाँधना, बाजे बजाना और गाना तथा नृत्य करना, मीठी गारियाँ गाना, वर-वधू का मुखड़ा उघाड़ना, अग्नि को साक्षी करके मंत्रोचारण के साथ भाँवरें देना, वर-कन्या का शपथ लेना आदि सभी लोकाचारों एवं रीतियों का निरूपण हुआ । उसी समय माता पद्मावती का आकर आशीर्वाद देना तो जैसे सभी कुछ भारतीय रंग में रंजित हो गया है। - चिरु जीवहि णंदण पुहइणाह, कालिंदी सुरसरि जाव वाह 13.9.4। अर्थात् हे नन्दन ! हे पृथ्वीनाथ ! चिरंजीवी हो, जब तक जमुना- गंगा की धारा बह रही है। इसी प्रकार चम्पाधिप और करकंड का जब भीषण युद्ध होता है तब समरांगण में ही पद्मावती आ पहुँचती है तथा पुत्र करकंड को रोकती हुई कहती है कि ये तेरे पिता हैं और फिर वह अपना पूर्व इतिहास दोहराती है । चम्पानरेश को विस्मय और विश्वास साथ-साथ होते हैं। उसी क्षण वह पद्मावती की ओर दृष्टि उठाकर देखता है, यह भाव - चित्र बड़ा अद्भुत है, एक ही साथ रति-भाव अपने उत्साह, आकर्षण, पवित्रता, आतुरी आदि संचारियों के साथ जैसे उमड़ पड़ता है - - सा दिट्ठिय चंपणरेसरेण, गंगाणर णं रयणायरेण ।3.20.7 । अर्थात् उसे चम्पानरेश ने ऐसे देखा जैसे रत्नाकर गंगानदी को देखे । यहाँ 'रत्नाकर' तथा 'गंगा' के उपमानों का प्रयोग बड़ा सार्थक एवं भावपूरित है। यह सचमुच जैन मुनि के कवि होने का ही चमत्कार है। क्षणभर बाद ही धाड़ीवाहन संग्राम में जाकर पुत्र का आलिंगन करता है जैसे दामोदर ने प्रद्युम्नकुमार का आलिंगन किया । जह संग जाइवि तेयणिहि पज्जुण्णु कुमरु दामोयरिण 13.21.10।
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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