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अपभ्रंश भारती 13-14
जा जणहँ सुचित्तहरा
कंचण-मय साल सिरी-वरिया
जल-पूरिय परिहाऽलंकरियाः।:: गोउर-पडिखलिया-यास-यरा: - सुरहर-धय-रुधियणे सयरा। जहिहं पुरउ मुएविणु पाणहओ जहिं देक्खिवि लोयहं भूरि धणु वो मयर-सुराहँ विहित्त-मणु। णिय-हियंयंतरे पवहंत-हिरि
णिक्षति कुवेर वि अप्पसिरि।। जा सुहयरि जणहँ सुचित्तहरा
चंदणवल्ली भुववंगहरा। . गिव्वण-पुरी व महा-विउला
विवुहालंकिय हरिसिय-विउला। तहिं वज्जसेणु णामेण णिओ
हुवउ वज्जपाणि-सम भूरि सउ। वज्जंगु सवंधव सोक्खयरो
सुंदरु वज्जालंकरिय-करो। घत्ता - सिरि उरयले जं मुह-सयदले सुअ देवी देक्खेविणु।
कुवियंगय, जियससियरवय, णावइ कित्ति वि लेविणु॥वडमाणचरिउ 7.10 ।।
- जो नगरी के श्री-सम्पन्न कंचनमय परकोटों एवं जलपूरित परिखा से अलंकृत है। जहाँ के गोपुरों से नभचर भी प्रतिस्खलित हो जाते हैं; देवगृहों के समान (जहाँ के) गृहों की छज्जाएँ निशिचरों के लिए बाधक बन जाती हैं। जहाँ (के निवासी उस) पुरी को छोड़ने से प्राणहत जैसे हो जाते हैं। जहाँ के लोगों के धन की प्रचुरता देखकर कुबेर भी अपने मन में लज्जित होकर अपनी श्री की निन्दा किया करते हैं, जो नगरी मुखकरी है, जनों के चित्त को हरने वाली है। भुजंग को धारण करनेवाली चन्दनलता के समान है, महाविपुल गीर्वाणपुरी स्वर्ग के समान है, विबुधों से अलंकृत है, तथा जो विकलजनों को हर्षित करनेवाली है, उसी उज्जयिनी नगरी में वज्रसेन नामक एक राजा (राज्य करता) था जो वज्रपाणि- इन्द्र के समान अनेक विभूतियों वाला था। वह वज्रशरीरी अपने समस्त बन्धुओं को सुधारने वाला सुन्दर एवं वज्र-चिह्न से अलंकृत हाथों वाला था।
घत्ता – जिसके उरस्तल में लक्ष्मी और मुख में शतदल कमल-मुखी श्रुतदेवीरूप सौत को देखकर ही मानो उस (राजा वज्रसेन) की, चन्द्रमा की धवलिमा को भी जीत लेनेवाली कीर्ति रूपी महिला कुपित होकर (दशों दिशाओं में) ऐसी भागी कि फिर लौटी ही नहीं।
अनु. - डॉ. राजाराम जैन