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अपभ्रंश भारती 13-14
महाकाल रूपी महानाग का परिवार भी विस्तृत है। यह काल उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी दो नागिनों से घिरा है। एक-एक नागिन के तीन-तीन समय हैं। उसके भी साठ पुत्र हैं जो संवत्सर के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन संवत्सरों की भी दो पत्नियाँ हैं जो उत्तरायण और दक्षिणायन नाम से प्रसिद्ध हैं। चैत्र से फागुन तक उसके छह विभाग हैं। उनके भी कृष्ण और शुक्ल नामक दो पुत्र हैं जिनकी पन्द्रह-पन्द्रह प्राणप्रियं पत्नियाँ हैं। तीनों लोकों में ऐसा कोई प्राणी नहीं जिसको इसने न डसा हो।
काल का प्रभाव समझकर उद्वेलित हुए इन्द्रजीत, मेघवाहन, मय, कुम्भकर्ण, मारीच आदि रावण-पक्ष के अनेक नरेन्द्र तथा अमरेन्द्र शील धारणकर संन्यस्त हो जाते हैं। मन्दोदरी सहित रावण का समस्त अन्तःपुर भी दीक्षा ले लेता है। लंका में प्रविष्ट हुए अशान्त राम स्वयं शान्तिलाभ हेतु अपनी पत्नी-भाई एवं अनुचरों के साथ शान्तिनाथ मन्दिर में जाते हैं।
विषयासक्ति से निस्तारण हेतु मथुरा का राजा मधु कठोर पाँच महाव्रतों को धारणकर जिन-भगवान् की शरण लेता है। पाँच णमोकार मन्त्र का उच्चारण, के सब सुखों के आदि निर्माता अरहन्त भगवान् सात वर्णों का उच्चारण कर, पुनः शाश्वत सिद्धि-दाता सिद्ध भगवान् के पाँच वर्णों का उच्चारण कर, पुन: उपाध्याय के नौ वर्णों का उच्चारण और अन्त में सर्वसाधुओं के नौ वर्णों का उच्चारण अर्थात् कर्म-निर्जरा हेतु अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु का स्मरण- चिन्तवन, स्वयंभूदेव के शब्दों में शास्त्र की परम्पराएँ बनानेवाले पैंतीस अक्षरों का उच्चारण कर वह आत्मध्यान में स्थित होता है और गजवर पर स्थित ही उसका शरीरान्त होता है। '
भक्ति-काल की निर्गुण-सगुण दोनों धाराओं में स्त्री-देह को हेय ठहराया गया है; चाहे भक्त कबीर हों या तुलसीदास। स्वयंभूदेव ‘पउमचरिउ' में इन्द्रियासक्ति-विषयभोग एवं मोह का प्रधान कारण नारी को सिद्ध करते हुए नारी-देह एवं चरित्र के तिरस्कार-भर्त्सना का द्वार उन्मुक्त करते दीखते हैं। स्वयं सीता के शब्द 'जिह ण होमि पडिवारी तियमई'- (जिससे दुबारा नारी न बनें) इसी भाव के पोषक हैं; किन्तु स्त्री-सम्मान एवं आत्म-सम्मान की रक्षा वह स्वयं राज्य के तिरस्कार द्वारा करती है। स्नेह का परित्याग करती वैदेही दायें हाथ से अपने सिर के केश-लोंचकर उन्हें राम के सम्मुख डालकर अटल तपश्चरण अंगीकारकर दीक्षित होती है।28
भवान्तर के कर्मफल का भोग व्यक्ति को अगले जन्म में करना ही पड़ता है किन्तु मानव-जन्म प्राप्तकर वह तपश्चरण द्वारा अपने प्रारब्ध को परिवर्तित करने में समर्थ हो सकता है; जिसके लिए आवश्यकता है धर्म-पालन की।
सत्कर्म, अपरिग्रह, तपश्चरण व्यक्ति को ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करते हैं और दुष्कर्म उसके कलंक का कारण बनते हैं। सीता, पूर्वजन्म में वेदवती के रूप में किए गए अपने दुष्कर्म का फल अपवाद के रूप में इस जन्म में पाती है। घोर वीर तप साधते हुए बासठ साल बिता, तैंतीस दिनों की समाधि लगाकर वह इन्द्रत्व प्राप्तकर सोहलवें स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामक विशाल