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अपभ्रंश भारती 13-14 (4) उत्कृष्ट भाषा (5) गरिमामय एवं अर्जित रचना-विधान।'
‘पउमचरिउ' में लगभग ये सभी स्रोत विद्यमान हैं। जीवनभर क्षुद्र उद्देश्यों एवं विचारों से ग्रस्त व्यक्ति के लिए स्वयंभूदेव का ‘पउमचरिउ' उनके प्रकर्ष में सहायक है। आवेग की तो यहाँ कोई कमी नहीं। दया, शोक, भय, साहस, धैर्य- सभी के प्रसंग महाकाव्य में विद्यमान हैं।
कवि ने वस्तुपक्ष एवं शैलीपक्ष के उपयुक्ततम स्थलों और उपकरणों का चुनाव एवं उनका समंजन किया है, और समंजन के लिए विरोधी तत्त्वों का चुनाव करते हुए औदात्य उत्पन्न किया है। “विरोधी तत्त्वों से परिपूर्ण व्यापक विराट धरातल से सर्वाधिक प्रभावी तथ्यों को चुनने और उन्हें एक सम्पूर्ण इकाई में गूंथ देने से औदात्य उत्पन्न होता है। लांजाइनस की दृष्टि में प्रभावी और सारवान् तथ्य वे ही हैं जो मानव के औदात्य को अभिव्यक्त करते हैं। स्वरों के मिश्रण एवं प्रसंगानुसार परिवर्तन द्वारा कवि भाव-संचार में सफल होता है। यहाँ वीर रस एक छोर पर तो शृंगार रस दूसरे छोर पर विराजमान नहीं है अपितु 'भक्ति' उन्हें विरोधी तत्त्वों के रूप में अपने साथ अनस्यत किये हए है। इसी संगम्फन से कवि संसार की निस्सारता सिद्ध करता हुआ मानव को भक्ति/औदात्य की ओर ले जाता है।
त्रिभुवन स्वयंभूदेव के शब्दों में ‘पउमचरिउ' राम की चेष्टा है- 'पर्यायारामायणमित्युक्तं तेन चेष्टितं रामस्य।'' मूल प्रतिपाद्य 'भक्ति' होने के कारण ऋषभजिन-जन्म, जिन-निष्क्रमण के साथ प्रारम्भ हुआ महाकाव्य राम के आदिनाथ भगवान् के निकट चले जाने के साथ समाप्त होता है। रामायण आदि ग्रन्थों में राम लोकपुरुष या ब्रह्म के अवतार हैं; समस्त जगत् द्वारा वन्दनीय । 'पउमचरिउ' के राम 'बलदेव' हैं, जिनवर के परम उपासक। इस रामकथा के आधार से स्वयंभूदेव जैन-दर्शन एवं भक्ति की सार्थकता सिद्ध करने में सफल हुए हैं।
__ भक्ति की ओर झुकाव उत्पन्न करने में कारणरूप हैं- संसार एवं देह की नितान्त क्षयोन्मुख-प्रवृत्ति, काल-प्रभाव एवं जीवन की अनित्यता। जीव की आयु पत्ते के सिरे पर लटकते हुए जल-बिन्दु के समान अस्थिर है। अवश्य पाने योग्य वस्तु केवल एक- परमात्मज्ञान है। इससे फिर शोक नहीं करना पड़ता, यह परम निर्वाणरूप सुख का स्थान है। इस सत्य का साक्षात् कर लेने के कारण कथा में आए सभी मुख्य एवं गौण पात्र दीक्षा स्वीकार कर प्रव्रजित होते हैं।
जीवन और जीवन के सुख दोनों चंचल हैं और दुःख मेरु पर्वत की तरह बढ़ता है। वृद्ध कंचुकी की जरा-जर्जरावस्था से विषण्ण-मन राजा दशरथ वही कर्म करना चाहते हैं जिससे अजर-अमर पद प्राप्त किया जा सके -
सहु महु-विन्दु-समु दुहु मेरु-सरिसु पवियम्भइ। परि त कम्मु हिउ जं पउ अजरामरु लब्भइ ।।22.2.9 ।।