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________________ परवर्ती काव्य विशेषकर हिन्दी वाङ्मय में कविरूढ़ियों की भाँति 'मंगलाचरण' का प्रयोग अनिवार्य हो गया है। " "जैन फागु-वर्णनों में धार्मिकता के साथ ऐहिकता का इतना अधिक मिश्रण है कि कभीकभी तो पाठक को भी भ्रम होने लगता है कि कहीं श्रृंगार-वर्णन तो नहीं हो रहा है !" " जहाँ पर जैन कवियों ने लौकिक लोकाचार को सामने रखा वहाँ पर साहित्यिकता के श्रेष्ठ अंश हमें दिख जाते हैं । " "प्राचीन भारतीय साहित्य में महानगरी अयोध्या के अनेक वर्णन प्राप्त हैं। अयोध्या की गणना दस प्राचीन महा-राजधानियों एवं उत्तरापथ की पाँच महानगरियों में की गई है।' " " इस पावन महानगरी के जैसे सुन्दर एवं भक्तिपूर्ण वर्णन जैन साहित्य में मिलते हैं वैसे अन्यत्र दुर्लभ हैं, क्योंकि जैन मतावलम्बियों के अनुसार ऋषभदेवजी आदि पाँच तीर्थंकरों की जन्मस्थली है और उनके ( 24 ) तीर्थंकरों में से 22 इक्ष्वाकुवंशी थे। अयोध्या को ही इक्ष्वाकुवंशियों की राजधानी कहलाने का गौरव प्राप्त है। यही कारण है कि अन्य नगरियों की अपेक्षा अयोध्या को जैनों ने अधिक महत्त्व दिया है।" "अपभ्रंश के जैन कवि यों तो वीतरागी संन्यासी थे; फिर भी, अपनी काव्य-कृतियों के सौन्दर्य-विधान में उनकी कारयित्री - प्रतिभा ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी है। वस्तु-सौन्दर्य, भावसौन्दर्य, अलंकार - सौन्दर्य, रूप-सौन्दर्य, प्रकृति-सौन्दर्य, अनुभूति - सौन्दर्य तथा लोक-सांस्कृतिकसौन्दर्य आदि सभी के संघटन में उनकी नवनवोन्मेषशालिन कला और कल्पना का सहज परिचय मिलता है। सचमुच, उनका सौन्दर्य-बोध अनूठा है। इसके लिए उन्हें जहाँ जो उपादान मिला उसी का उचित स्थान पर प्रयोग करके कथा-काव्यों को अद्वितीय बना दिया है । काव्य सौन्दर्य की साधना ही तो है । सौन्दर्यानुभूति का आनन्द से अनिवार्य सम्बन्ध है। सौन्दर्य-सृजन और सौन्दर्य-भावन में सृष्टा और सहृदय की स्वाद - रुचि का सापेक्षिक महत्त्व है। निदान संन्यासी होने पर भी ये सौन्दर्य के प्रति उदासीन कैसे रह सकते थे ? और सच बात तो यह है कि विकारहीन हृदय को ही सौन्दर्यानुभूति अथवा काव्य की रसानुभूति होती है। इनसे तो मानवीय अन्तःकरण प्रांजल और परिष्कृत होता है। तभी तो सहृदय में सत् का प्रादुर्भाव होने से वह काव्य-रस का आस्वादन करता है। जीवन में कठोर संयम के कारण ये कवि-मुनि और आचार्य अवश्य स्वयं को जल में कमल - पत्रवत् ही बनाये रखते होंगे तथा सौन्दर्य एवं काव्यरस से अभिभूत होकर आनन्दित रहते होंगे। इस दृष्टि से इनका काव्य-सृजन जहाँ इनकी सौन्दर्य चेतना से अछूता नहीं रहा है, वहाँ अपने परा-आदर्श और उद्देश्य को भी पाने में समर्थ हुआ है। धार्मिक उपलब्धि ही इनका प्रधान प्रयोजन है। इसलिए कथा लोक-जीवन में विस्तार पाकर अन्त में जैन मुनि के दीक्षा-संस्कार में परिणत हो जाती है और कवि को सौन्दर्य-विधान का पूरा-पूरा अवसर मिल जाता है जिससे उसमें रसात्मकता का उद्रेक होता है। " (x)
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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