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________________ 92 अपभ्रंश भारती 13-14 कान के आभूषण वारा (वनवारी)- विणु वनवारां अक्षण नो वारसि॥ बुद्धि रे वंडिरो आपणि हारसि ॥ धवडिबनहं - यह कान में पहनने के झुमके के समान सोने का आभूषण है। (कानि) हिं धडिवनहं चि जे रेख॥ ते चिन्तवंतहं आनिक ओरब ॥ कांचडिअउ - करडिम्ब अनु काचडिअउ कानहिं। (कांचड़ी) काई करेवउ सोहहिं आनहिं। कांडिअहि कय्यूडिअहि सोहहिं दुइ गन्न। (कय्यडि) मंडन संडन डहि परे अन्न । (कं ?) य्यूविय्यहिं जे थण दीसहिं। ते निहालि सब वथु उवीसहिं ।। ताडरपात - यह पत्ते के आकार का कर्णाभरण है - कानन्हु पहिरले ताडर पात ।। जणु सोहइ एव सोहरे पात ॥ कनवास - कनवासहीं कानही वा ......... वह करउ खूटल वालु॥ गले के आभूषण हारू- सूतेर हारू रोमावलि कलिअ (उ) जणि गाँगहि जलु जउणहि मिलिअउ॥ थणहर माझे जो हारुसुतेरउ॥ सोहन्हु सवन्हु सो एकु ज ठेउ। सूते तरीअन्हु करउ (जो ?) हारु। सो देखि हारन्हु भउ अवहारू॥ गले में 'काठी' और 'जालाकांठी' पहनने का उल्लेख आया है - गलइ पुलू की भा (वइ) काँठी। . कासु तणि सा हरइ न दि (ट्ठी)
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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