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अपभ्रंश भारती
नहीं पाया जाता। यह अभिमान से नहीं, श्री गुरु परिज्ञान मात्र से उपलब्ध होता है । वही बात निम्नलिखित दोहे से भी कही जा रही है
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बुद्धि बिणासइ मण मरइ जहि तुट्टइ अहिमाण । सो माआअ परमफलु तहिं किं बज्झइ झाण ॥
गुरु उपसे अमिअ-रसु धाव ण पीअउ जेहि । बहु सत्थत्थ मरुत्थलिहिं तिसिए मरियउ तेहि ॥
इस 'सहज' की उपलब्धि हो जाने पर श्री सद्गुरु द्वारा उसके व्यक्त हो जाने पर बुद्धि विनष्ट हो जाती है, नि:शेष हो जाती है, मन मर जाता है, मिथ्याभिमान - पुद्गल और धर्म-विषयक समाप्त हो जाता है । उस समय मायामय परम कला भी अकिञ्चित्कर हो जाती है । मनः परिकल्पना की गति बन्द हो जाती है फिर ध्यान- बन्धन से क्या लेना-देना?
न
जिन कापुरुषों ने महावेग से दौड़कर गुरु-उपदेश- अमृत का पान नहीं किया- वे मरुस्थल में भटकते हुए तृषार्त सार्थवाह की तरह विनष्ट हो जाते हैं, कालचक्र में पिस जाते हैं ।
पण्डिअ
सअल
सत्य
देहहिं बुद्ध वसन्त ण तेण
वक्खाणइ । जाणइ ॥ विखण्डिअ। पण्डिअ ॥
अवणाअमण
तो वि णिलज्ज भणइ ह
पण्डित लोग नाना प्रकार के शास्त्रों पर व्याख्यान देते रहते हैं। उनका लक्ष्य सत्य-बोध नहीं, अपितु जय-पराजय रहता है, द्रव्यार्जन रहता है। देहस्थ बुद्ध को सद्गुरु-उपदेश से विमुख ये पण्डित नहीं जानते। जिसने गुरु- प्रदत्त आम्नाय को, रहस्यमय परम्परा को नहीं जाना वे स्वयं. नष्ट होते हैं और दूसरों को भी नष्ट करते हैं। ऐसे लोग संसार के आवागमन को निरस्त नहीं कर पाते, फिर भी ये निर्लज्ज अपने को पण्डित ही समझते हैं । ये पण्डित नहीं, मूर्ख हैं ।
विसअ - विसुधें उ रमइ केवल सुण्ण चरेइ । उड्डी बोहिअ काउ जिम पलुट्टिअ तहवि पडे ॥
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11-12
विसआसत्ति म बन्ध कुरु अरे बढ़ सरहँ वृत्त । मीण पअगम करि भमर पेक्खह हरिणहँ जुत्त ॥
जो सद्गुरु की आज्ञा से विशुद्ध बन्धनकारी विषयों में नहीं रमता, अपितु निरर्थक शून्य में भटकता रहता है, उसकी वही स्थिति होती है जो उस कौए की होती है जो जहाज से हटकर निरालम्ब समुद्र में भटकता रहता है और अन्ततः फिर वहीं लौट आता है। पुनः इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए कहते हैं
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सरह कहते हैं कि पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को खींचकर मृत्यु के गाल में झोंकनेवाले विषयों के प्रति आसक्ति न करो। देखो, मीन, पतङ्ग, हाथी, भ्रमर और हरिण ये प्राणी एक-एक विषय - रस, रूप, स्पर्श, गन्ध तथा शब्द के चक्कर में पड़कर अपना नाश कर लेते हैं ।