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अपभ्रंश भारती
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11-12
1999,
अक्टूबर अक्टूबर - 2000
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बौद्ध सिद्ध : सरहपाद
डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी
बौद्ध प्रस्थान में हीनयान आचरण-प्रधान साधना थी, जहाँ वासना का दमन होता था । शील, समाधि और प्रज्ञा जैसे त्रिरत्न की साधना से वासना का तेल सूख आता और चित्त दीप की बाती बुझ जाती है - निर्वाण हो जाता है। महायान में वासना का दमन नहीं, शोधन होता था । महायान पारमितानय की साधना करता था, यद्यपि उसमें भावीयान के मंत्रनय का बीज भी विद्यमान था । यही मंत्रनय का बीज वज्रयान में अपनी समस्त सम्भावनाओं के साथ विकसित हुआ। मंत्रनय का लक्ष्य है - वज्रयांग की सिद्धि । इसकी साधना बिन्दु-साधना है। नैरात्म्यवादी इस बौद्ध मार्ग में चित्त ही सर्वस्व है जिसके दो रूप हैं- संवृत चित्त और बोधि चित्त । बोधिचित्त ही परमार्थ चित्त है । उसी की प्राप्ति वज्र - सिद्धि है । संवृत चित्त चंचल शुक्र है, परमार्थ में वही विशिष्ट साधना से वज्रोपम हो जाता है। गगनोपम हो जाने से वह उष्णीय चक्र में प्रतिष्ठित हो जाता है फिर निर्माण - चक्र (निम्नतम) हो या उष्णीष चक्र - सर्वत्र समभाव से स्थिर हो जाता है
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शून्यताकरुणाभिन्नं बोधिचित्तं तदुच्यते
यह द्वन्द्वातीत समरस 'महासुह' दशा है। यह सिद्ध सरहपाद हैं जिन्होंने त्रिशरण में 'गुरुं शरणं गच्छामि' का चौथा चरण जोड़ा। क्षरणशील शुक्र ही संवृत चित्त है जिसे महामुद्रा के संसर्ग सेक्षुब्ध कर अवधूती मार्ग में संचरित किया जाता है और शोधित होकर उष्णीष चक्र में प्रतिष्ठित