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अपभ्रंश भारती - 11-12
___208वें छन्द में विरहिन जिन की शीघ्र ज्वाला (अमूर्त अप्रस्तुत) के लिए 'वडवाग्नि की ज्वाला' (अमूर्त अप्रस्तुत) का प्रयोग हुआ है। देखिए -
पज्जलंत विरहाग्नि तिव्व झालाउलं,
मयरद्धवि गज्जंतु लहरि घण भाउलं।" एवंविध्, अमूर्त-अमूर्त-विधान में कवि ने विविधता के साथ-साथ सांदर्भिकता का पूरापूरा ध्यान रखा है। ___ 'संदेश-रासक' का अप्रस्तुतविधान मुख्यत: आलंकारिक है । इसकी आलंकारिकता की रक्षा के लिए कवि ने अधिकांशत: परम्परामुक्त अप्रस्तुओं (उपमानों) का अवलम्बन लिया है । इसका अर्थ यह नहीं कि उनका अप्रस्तुतविधान नीरस, फलस्वरूप विकर्षक है । कवि ने उसे जहाँ अपनी स्वच्छन्द, मगर, प्रभावी कल्पना-शक्ति से ताजगी दी है, वहाँ उसे अपनी सहृदयता का संस्पर्श देकर सहज संवेद्य और मर्मस्पर्शी भी बना दिया है। उदाहरण के लिए - रमणी के अलकों के लिए पिशुन या फिर उसके सर्वांग के लिए कदली-स्तंभ का प्रयोग । बालों की कुटिलता के लिए 'पिशुन', अर्थात् चुगलखोर का प्रयोग हिन्दी साहित्य में शायद नहीं मिलता। इसीतरह 'उरूओं' के लिए 'कदली-स्तम्भ' का प्रयोग तो मिलता है, परन्तु सम्पूर्ण शरीर के लिए यह प्रयोग परम्परा से हटकर है। 'कटि' की तुलना 'मर्त्य सुख' से करके कवि ने अपनी मौलिकता का परिचय दिया है। ये अप्रस्तुत न केवल शारीरिक सौष्ठव को उभारते हैं, बल्कि हृदय पर अनुकूल प्रभाव भी डालते हैं। इस दौरान कवि का ध्यान जहाँ सादृश्य पर रहा है, वहाँ साधर्म्य और प्रभावसाम्य पर भी। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है - "संदेश-रासककार ने यद्यपि अधिकांशतः परंपरागृहीत उपमानों का ही प्रयोग किया है, फिर भी अपनी काव्योचित सहृदयता से उन्हें प्राणवंत बना दिया है। कहीं-कहीं अद्दहमाण ने स्वच्छंद पद्धति विरल प्रयुक्त या नये उपमानों का प्रयोग करके अपनी मौलिकता का भी परिचय दिया है। संदेश-रासक में केवल बाह्य रूप-वर्णन ही नहीं है, अपितु गहरे जाकर हृदय पर पड़नेवाले रूप प्रभाव को भी उपमानों के माध्यम से व्यक्त किया है। ___समासतः, संदेश-रासक का अप्रस्तुतविधान जहाँ सदियों से चली आ रही साहित्यिक परम्परा का अनुसरण करता है, वहाँ बीच-बीच में उसकी सविनय अवज्ञा करता हुआ नई परम्परा का सूत्रपात भी करता है। जहाँ वह परम्परा का अनुगमन करता प्रतीत होता है, वहाँ रसनीयता का स्रोत बनकर बखूबी पाठकों को रस-निमग्न करता भी है।
इसतरह 'संदेश-रासक' का अप्रस्तुतविधान परम्पराभुक्ति और परम्परामुक्ति, शास्त्रीयता और लौकिकता, आलंकारिकता और बिम्बधर्मिता का समन्वित रूप उपस्थित करता है।
1. मनोहरलाल : घनानंद के काव्य में अप्रस्तुत योजना; नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
23-दरियागंज, दिल्ली -6; प्र. सं. - 1974 ई.; पृ. - 61