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________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 वह हाथी सूँड को दाँत पर रखकर गुलगुलाता हुआ, पैरों के भार से पृथ्वी को रौंदता हुआ दौड़ पड़ा - उच्चाइवि करयलु सिरु धुणेवि, अवलोइय करिणा मुहु वलेवि । सा पेक्खिवि सो करिवरु विरुद्ध, उद्भाविउ करि मयगंधलुधु । करु दसणे करंतउ गुलुगुलंतु, पयभारें मेइणि णिद्दलंतु । (5.14) इस प्रकार आंतरिक भावों और अनुभावों के चित्रण में कवि ने जिस सौन्दर्य की सृष्टि की है उसमें उसकी कला-पटुता एवं सौन्दर्य-बोध का परिचय मिलता है। उसके लिए जिन अलंकारों तथा अप्रस्तुतों का प्रयोग किया है वे बड़े सार्थक और सटीक हैं । कहीं-कहीं तो उनके द्वारा भावों की पवित्रता इस कथा काव्य के उद्देश्य को भी इंगित करती है । और कहीं रूप-चित्रण में सौन्दर्य की दृष्टि से चार चाँद लग गये हैं। पहली संधि में ही पद्मावती का नख-शिखनिरूपण प्रतीप तथा उत्प्रेक्षा के माध्यम से अतीव सौन्दर्य का केन्द्र बन गया है - नखों के रूप में मानो सूर्य-चन्द्र इसका अनुसरण करते हैं। इसके शरीर की इच्छा करती हुई कदली इसकी जंघाओं का अनुसरण करने लगी है। ऐरावत हाथी ने उनके समक्ष अपनी सूँड को भला न जान, मानो मेरु के उच्च शिखर का सेवन किया है। सुरगिरि ने अपने से भी कठिन मानकर इस ललितदेह रमणी के नितंब का अनुसरण किया है। नाभि की गहराई तो इतनी है कि जैसे समुद्र ने उसे ही अपनी कन्या मानकर उपहार में दी हो। उसके रेखांकित पीन और उन्नत स्तन तो ऐसे हैं मानो नये घावों से युक्त हाथी के कुम्भ ही हों । करपल्लवों की शोभा से युक्त उसकी भुजालताओं की सुडौलता का क्या वर्णन करूँ? दंतावलि ऐसी चमकदार है मानो अनार के दानों का ही अनुसरण कर रही हो। नासिका की उन्नति को सहन न करने से ही उसके अधरों ने लालिमा धारण कर ली है। उसके श्वेत और कृष्ण नयन-तारे ऐसे सोहते हैं मानो केतकी के पत्र पर दो बड़े-बड़े भौंरे आ बैठे हों । उसकी कुटिल भृकुटियाँ ऐसी भाती हैं मानो मदन ने अपनी धनुर्यष्टि धारण की हो। भाल-तल ऐसा है मानो अर्धचन्द्र ही शोभा दे रहा हो। भौंरों के समान काले केश सिर पर लहलहाते ऐसे प्रतीत होते हैं मानो उसके मुख-चन्द्र के भय से अन्धकार वहाँ मिलकर काँप रहा हो, यही गत्यात्मक सौन्दर्य है - 59 तणुरुवरिद्धि एह अइविहाइ, णहरूवइँ रविससि सरिय णाइँ । सारउ सरीरु इच्छंतियाए, इह सारिउ जंघउ कयलियाए । करिराएँ मण्णेवि करु ण चंगु, णं सेविउ मेरुहि आहि तुंगु । सुरगिरिणा गणियउ कठिण एह, अणुसरिय णियंबहो ललियदेह | पिलत्तणु मणहरु सोणियाहि, घरु मण्णिवि मयणें विहिउ ताहि । मयरहरइँ गहिरिम णाहियाहे, णं धीय भणेविणु दिण्ण आहे । तहि लिहियई पीणुण्णयथणाइँ, णं कुंभिहे कुंभइँ, णववणाइँ । किं वण्णमि सरलिम भुवलयाहिं, करपल्लव सोहा संजुआहिं । दंतावलि सोहइ विप्फुरंति, णं दाडिमवीयहँ अणुहरति ।
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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