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________________ 57 अपभ्रंश भारती - 11-12 भाव-सौन्दर्य के विचार से भी विभिन्न स्थलों पर कवि ने सुन्दर अवतारणा की है। इसमें बाह्य-रूप एवं आभ्यंतर-भाव की मनोहारी छटा कवि ने उकेरी है। कहीं-कहीं तो अप्रस्तुत योजना के सहारे भाव की सजीवता और पवित्रता हृदय को छू जाती है और इसकी कल्पनाचातुरी के समक्ष नत-मस्तक हो जाना पड़ता है। भावों की मूर्त-संयोजना और चित्रण में मुनि कनकामर की कला-प्रवीणता देखते ही बनती है। श्मशान में पुत्र-जन्म लेते ही एक मातंग आ जाता है। उसका रूप-चित्रण करता हुआ कवि कहता है - उसका रंग काला और नेत्र लाल थे। वह उस नवजात शिशु के पास आया और अपने हाथों में बालक को ऐसे उठा लिया मानो विशाल हाथी ने स्वर्ण-कलश को उठा लिया हो। उसके हाथ में बालक इस प्रकार शोभा दे रहा था मानो काले नाग के फण पर मणि चमक रही हो। यहाँ बालक की सुकुमारता, सौन्दर्य तथा दिव्यता की विभूति का तो चित्रण हुआ है, मातंग की भयंकरता से मां के शंकित हृदय की भी मौन झाँकी प्रस्तुत हो गई है - कसणच्छवि लोयण रत्त जासु, सो आयउ तहिं णंदणहो पासु। उच्चायिउ तें सो णियकरण, णं हेमकलसु कुंजरवरेण। तहिं करयलि थक्कउ सोह देइ, णं फणिवइमत्थइँ मणि सहेइ। (2.1.6) नगर-आगमन के समय करकंड के दर्शन के लिए नारियों की विह्वलता का दृश्य बड़ा भव्य, भावात्मक और आकर्षक है - कोई रमणी उत्कंठित होकर वेग से चल पड़ी, कोई विह्वल होकर द्वार पर ही खड़ी रह गई। कोई नए राजा के स्नेह से लुब्ध होकर दौड़ पड़ी, उस मुग्धा को अपने गलित हुए परिधान की भी सुध न रही। कोई अपने अधर में खूब काजल देने लगी और नेत्रों में लाक्षारस करने लगी। कोई निर्ग्रन्थ-वृत्ति का अनुसरण कर रही थी, तो कोई अपने बालक को विपरीत कटि पर ले रही थी। कोई बाल नपुर को करतल में पहन रही थी और माला को सिर छोड़कर कटितल पर धारण कर रही थी। कोई बेचारी अनुराग में इतनी डूब गई कि बिलौटे को अपना पुत्र समझकर उसे छोड़ती ही नहीं थी। कोई नये राजा को मन में धारण कर दौड़ रही थी और विह्वल हुई भूमि पर चलती-चलती मूर्च्छित हो रही थी - क वि रहसइँ तरलिय चलिय णारि, विहडफ्फड संठिय का वि वारि। क वि धावइ णवणिवणेहलुद्ध, परिहाणु ण गलियउ गणइ मुद्ध। क वि कज्जलु बहलउ अहरे देइ, णयणुल्लएँ लक्खारसु करेइ। णिग्गंथवित्ति क वि अणुसरेइ, विवरीउ डिंभु क वि कडिहिं लेइ। क वि णेउरु करयलि करइ बाल, सिरु छंडिवि कडियले धरइ माल। णियणंदणु मण्णिवि क वि वराय, मज्जारु ण मेल्लइ साणुराय। क वि धावइ णवणिउ मणे धरंति, विहलंघल मोहइ धर सरंति। (3.2.2)
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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