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अपभ्रंश भारती - 11-12
तें दिट्ठउ रायणिकेउ तुंग, अइमणहरु णं हिमवंतसिंगु। मुक्ताहलमालातोरणेहिं, णं विहसइ सियदंतहिं घणेहिं। किंकिणिरणंतु धयवडवमालु, णं णच्चइ पणयिणि विहियतालु।
चामीयरमणिरयणेहिं घडिणु, णं सग्गहो अमरविमाणु पडिउ। (3.3.3) सरोवर में पूजा के लिए कमल लेने आये हाथी का चित्रण बड़ा नैसर्गिक बन पड़ा है और क्रियाओं से तो मानव-सदृश चेतना का सहज परिचय मिलता है - सरोवर में से कमल लेने के लिए आता हुआ वह करीन्द्र ऐसा प्रतीत होता था मानो एक पर्वत समुद्र के पास आया हो। वह कानों से झलझल स्वर उत्पन्न कर रहा था और कपोलों से मद बहा रहा था। उसके लोचन खूब लाल थे। दाँतों से वह प्रशंसनीय था। उसकी रीढ़ चढ़ाए हुए चाप के समान उठी हुई थी। वह भौंरों के पुंजों को दूर हटाता जा रहा था और सूंड के जल से दिशामुखों को भर रहा था। वह सैंड से सैकड़ों कमलों को तोड़ रहा था और सिर पर मोतियों की माला धारण किये था। सचमुच यह चित्र बड़ा ही भव्य है -
सरोवरे पोमइँ लेवि करिंदु, समायउ पव्वउ पाइँ समुहु। झलाझल कण्णरएण सरंतु, कवोलचुएण मएण झरंतु। सुपिंगललोयणु दंतहिं संसु, चडावियचावसमुण्णयवंसु। दुरेहकुलाइँ सुदूरे करंतु, दिसामुह सुंडजलेण भरंतु।
करेण सरोयसयाइँ हरंतु, सुमोत्तियदाम सिरेण धरंतु। (4.6.4) शिल्पी के द्वारा टाँकी चलाने पर निकली जलवाहिनी के सौन्दर्य का चित्रण तो कवि ने अनेक उत्प्रेक्षाओं द्वारा किया है, जैसे उसकी संपूर्ण श्रद्धा इस प्रकार प्रकट हो गई है - भारी चोटें पड़ने से चिनगारियाँ निकलने लगीं, मानो शेषनाग के क्रोधवश जल उठने के चिह्न हों। फिर उस गाँठ के मुख से शीघ्र ही एक बड़ी भारी जल की धारा निकल पड़ी। पहले भुक-भुक करती हुई निकली, मानो मेदिनी भय से वमन करने लगी हो। बाहर निकलती हुई वह ऐसी प्रतीत हुई मानो पथ्वी को भेदकर नागेन्द्र की गहिणी निकल पडी हो। भमि में मिलकर वह ऐसी सशोभित हई मानो गंगा नदी खल-खला रही हो। उसने क्षणभर में ही सारे लयण को जल से भर दिया, मानो रसों से भरा अमृत कुण्ड हो अथवा जल के बहाने से धर्म-सार भरा हो । अनेक ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग से यहाँ चित्र अपेक्षाकृत सजीव-साकार हो उठा है तथा उपमानों के उचित प्रयोग से पवित्रता पूरित हो गई है जो सर्वथा प्रतिपाद्य के अनुरूप है -
गुरुघायवडणें णिग्गय फुलिंग, णं कोहवसइँ अहिजलणलिंग। तहे गंठिहे वयणहो बहलफार, ता णिग्गय तक्खणि सलिलधार। पढमउ भुंभुक्कइ. णिग्गमेइ, णं मेइणि भीएँ उव्वमेइ। णिग्गंती वाहिरि सा विहाइ, महि भिंदिवि फणिवइघरिणि णाइँ। परिसहइ सा वि भूमिहिं मिलंति, गंगाणइ णं खलबल खलंति। पसरंतिए ताएँ खणेण भव्वु, तं भरियउ लयणु जलेण सव्वु। णं अमिय कुंडु बहुरसजलेण, णं धम्मसारु थिउ जलछलेण। (4.14.2)