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________________ 42 अपभ्रंश भारती - 11-12 मणिरयणाइयहुँ ण संख जेत्थु जलपरिहसालगोउरमहल्लु ] समवसरणु धयसंकडिल्लु। रामायणु व्व कइयणपगामु लक्खणसमेय रामाहिरामु। अह भारहु व्व गुरुकण्णमाणु वावरियपत्थु कणभरियदोणु। अह सहइ जाइवित्तेहिँ रुंदु जइगणहिँ अलंकिउ णाइँ छंदु। महणत्थिय मंदरतुल्लसोहु चउदिसु अणंतपयजणियखोहु। अहवा गयणयलु व भमियमित्तु तमहरमंगल बुहगुरुपवित्तु। अहवा पायालु व णायवंतु मणहर पोमावइसोह दिंतु। अहवा वणिज्जइ काइँ तेत्थु मणिरयणाइयहुँ ण संख जेत्थु। घत्ता - तहिँ राणउ अत्थि सयाणउ धाईवाहणु णाम। मणहरणउ जणवसियरणउ णं सरु सजिउ कामें ॥3॥ सुदंसणचरिउ 2.3 वह चम्पापुर जल से भरी हुई परिखा, कोट तथा गोपुरों से ऐसा महान् एवं ध्वजाओं से ऐसा संकीर्ण था जैसे मानो भगवान् का समोसरण ही हो। वह कविजनों से पूर्ण एवं लक्षणों से युक्त रमणियों से ऐसा रमणीक था जैसे कि रामायण कपियों से युक्त एवं लक्ष्मण सहित राम के चरित्र से रमणीक है। वहाँ के निवासी गुरुजनों की कान (विनय) मानते थे; वहाँ के पथ लोगों के गमनागमन से व्याप्त थे; और वहाँ अन्न से भरे द्रोण दिखाई देते थे; इस प्रकार वह महाभारत के समान था, जिसमें गुरु (भीष्म पितामह) और कर्ण का सम्मान, पार्थ का व्यापार एवं कणभरिय (?) द्रोणाचार्य पाये जाते हैं। वह जातियों और उनकी प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में ऐसा विशाल तथा साधुजनों से ऐसा शोभायमान था जैसे जाति वत्त द्वारा विस्तृत रचना, एवं यति और गणों से अलंकृत छन्द हो। वह अर्थी ब्राह्मणों के द्वारा एवं चारों दिशाओं में अनन्त प्रजा द्वारा उत्पन्न कोलाहल से उस मन्दर पर्वत के समान शोभा को धारण करता था, जो समुद्र-मंथन के लिए स्थापित किया गया था, और जिसके द्वारा चारों दिशाओं में अनन्त जलराशि में क्षोभ उत्पन्न हुआ था। वहाँ मित्रजन भ्रमण करते थे; और वह अज्ञान को दूर करनेवाले कल्याणकारी विद्वान् गुरुजनों से पवित्र था; जिससे वह उस गगनतल के समान था जहाँ सूर्य का परिभ्रमण होता है, एवं जहाँ अन्धकार का अपहरण करनेवाले मंगल, बुध व गुरु नामक ग्रहों का संचार होता है। अथवा उस नगरी में न्याय वर्ता जाता था, और मनोहर लक्ष्मी की शोभा दिखाई दे थी; अतएव वह उस पाताल के समान था, जहाँ नागों का निवास है, और जहाँ मनोहर पद्मावती की शोभा पाई जाती है । अथवा उस नगरी का क्या वर्णन किया जाए, जहाँ मणियों और रत्नों आदि की संख्या ही नहीं थी। उस पुरी में धाईवाहन नाम का ज्ञानी राजा था जो ऐसा मनोहर और लोगों को वश में करनेवाला था जैसे मानों कामदेव ने उसे अपना बाणरूप ही सजाया हो। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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