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अपभ्रंश भारती - 11-12
1999,
अक्टूबर अक्टूबर - 2000
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अपभ्रंश का चरिउ काव्य और उसकी परम्परा
• विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया
हिन्दी का पूर्व और अपूर्व रूप अपभ्रंश है । इसमें प्रणीत साहित्य आज प्रचुर परिमाण में उपलब्ध है। अपभ्रंश में महाकाव्य, प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य, रूपककाव्य, कथा और कथानक के विविध रूप तथा अन्य अनन्य लोक और लैकिक काव्य रूपों में काव्य की सर्जना हुई है। काव्य के अतिरिक्त अपभ्रंश में गद्य साहित्य भी रचा गया है।'
अपभ्रंश के खण्ड काव्यों में 'चरिउ' काव्यरूप का प्रयोग और प्रचलन प्रचुर परिमाण में हुआ है। यहाँ 'अपभ्रंश का चरिउ काव्य और उसकी परम्परा' विषयक संक्षिप्त चर्चा करना वस्तुतः हमारा मूल अभिप्रेत है।
रसात्मक वाक्य को काव्य कहा गया है। श्रेष्ठ काव्य उसके पाठक तथा श्रोता के मन और मानस को छूता है । उसे पढ़ तथा सुनकर आह्लादित होना होता है। काव्याभिव्यक्ति पहले-पहल फूटकर जो रूप धारण करती है वही रूप कालान्तर में काव्य रूप बन जाता है। काव्य की अभिव्यक्ति के अनेक रूप बनते और विकास को प्राप्त होते हैं ।
चरिउ एक सशक्त काव्य रूप है। चरिउ का मूल उद्गम अपभ्रंश के आरम्भ से हुआ है। किसी पौराणिक पुरुष तथा धार्मिक महापुरुष का जीवनवृत्त और वृत्ति वैशिष्ट्य का कथात्मक शैली में रचा गया चरित वस्तुतः चरितकाव्य है । चरित अथवा चरित्र का अपभ्रंशरूप 'चरिउ
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