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________________ है; अपितु गहरे जाकर हृदय पर पड़नेवाले रूप प्रभाव को भी उपमानों के माध्यम से व्यक्त किया है। समासतः, संदेश-रासक का अप्रस्तुतविधान जहाँ सदियों से चली आ रही साहित्यिक परम्परा का अनुसरण करता है, वहाँ बीच-बीच में उसकी सविनय अवज्ञा करता हुआ नई परम्परा का सूत्रपात भी करता है । जहाँ वह परम्परा का अनुगमन करता प्रतीत होता है, वहाँ रसनीयता का स्रोत बनकर बखूबी पाठकों को रस-निमग्न करता भी है।" "बौद्ध प्रस्थान में हीनयान आचरण-प्रधान साधना थी, जहाँ वासना का दमन होता था। शील, समाधि और प्रज्ञा जैसे त्रिरत्न की साधना से वासना का तेल सूख आता और चित्त-दीप की बाती बुझ जाती है - निर्वाण हो जाता है। महायान में वासना का दमन नहीं, शोधन होता था।" __ "नैरात्म्यवादी इस बौद्ध मार्ग में चित्त ही सर्वस्व है जिसके दो रूप हैं - संवृतचित्त और बोधिचित्त । बोधिचित्त ही परमार्थ चित्त है । उसी की प्राप्ति वज्र-सिद्धि है । संवृतचित्त चंचल शुक्र है, परमार्थ में वही विशिष्ट साधना से वज्रोपम हो जाता है । गगनोपम हो जाने से वह उष्णीय चक्र में प्रतिष्ठित हो जाता है फिर निर्माण-चक्र (निम्नतम) हो या उष्णीय चक्र - सर्वत्र समभाव से स्थिर हो जाता है - शून्यताकरुणाभिन्नं बोधिचित्तं तदुच्यते यह द्वन्द्वातीत समरस 'महासुह' दशा है । यह सिद्ध सरहपाद ही हैं जिन्होंने त्रिशरण में 'गुरुं शरणं गच्छामि' का चौथा चरण जोड़ा। क्षरणशील शुक्र ही संवृत चित्त है जिसे महामुद्रा के संसर्ग से क्षुब्ध कर अवधूती मार्ग में संचरित किया जाता है और शोधित होकर उष्णीय चक्र में प्रतिष्ठित हो जाता है।" "आचार्य जिनदत्त सूरि उच्चकोटि के धर्माचार्य, लेखक एवं सुकवि थे। आपने सम्पूर्ण मरुदेश का भ्रमण कर जैनधर्म का प्रचार किया, इसलिये आपको मरुस्थली कल्पतरु भी कहा जाता है। अजमेर नरेश अणौराज और त्रिभुवनगिरि के राजा कुमारपाल आदि तत्कालीन शासक एवं सामन्त आपके भक्त थे।" "कवि जिनदत्तसूरि की अबतक उपलब्ध रचनाएँ हैं - 1. उपदेश रासरसायन, 2. कालस्वरूपकुलकम्, 3. चर्चरी।" "महाकवि रोडा-कृत 'राउलवेल' (राजकुल विलास) एक भाषा-काव्य है। 11वीं शताब्दी के इस शिलांकित भाषा-काव्य की भाषा तत्कालीन समाज में प्रचलित पुरानी कोसली का एक सुन्दर उदाहरण कहीं जा सकती है।" ___ "रोडा-कृत 'राउलवेल' अपभ्रंशोत्तर काल की अत्यधिक सुन्दर, कलात्मक एवं शृंगारपरक काव्य कृति है। इसकी सभी नायिकाएँ विभिन्न अलंकरणों से नख से शिखा तक सुसज्जित हैं। उनके नख-शिख सौन्दर्य की भावात्मक अभिव्यक्ति हेतु कवि ने उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षाओं (xi)
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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