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________________ 74 अपभ्रंश भारती - 9-10 एक श्रेष्ठी के घर से आहार कर प्रस्थान करते हुए, सागरचन्द्र मुनि को देखकर युवराज शिवकुमार को पूर्व जन्म का स्मरण हो जाता है। फलस्वरूप वह जरा-मरण-रूप संसार से उदासीन हो मित्र द्वारा पिता के लिए संदेश भेजता है। यह संसार (पुनः-पुनः जन्म-मरण) रूपी काला साँप सारे लोक को पराभूत करता है। यह इन्द्रियोंरूपी फणों, चतुर्गतिरूप मुख, मिथ्यात्व मोहरूपी विसदृशनेत्र, रतिरूपी दाढ़ तथा विषयभोगरूपी चंचल जिह्वा से युक्त और शुभाशुभ कर्मफलरूपी गरल से भरा हुआ है। जिन भगवान रूपी गरूड़ ने इस (संसार) का क्षय करनेवाला तपरूपी मंत्राक्षर बतलाया है वह मेरे द्वारा ग्रहण करने और पालन करने योग्य है। पुनर्जन्म के स्मरण से होनेवाले मानसिक चिन्तन को शिवकुमार ने वचन के द्वारा अभिव्यक्त किया है अतः अनुभाव बन गया है। क्योंकि काव्यनुशासनकार हेमचन्द्राचार्य ने अध्यात्म शास्त्र के चिन्तन को शान्त रस के अनुभाव में परिगणित किया हैं। यह सहृदय को शान्त रस की अनुभूति कराने में समर्थ है। __जब जंबूकुमार सुधर्मस्वामी से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त सुनते हैं तो उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो जाता है । वे मुनिराज से दीक्षा हेतु निवेदन करते हैं । पर मुनिराज पहले उन्हें माता-पिता की अनुमति लेने घर भेजते हैं। वे घर आकर माता-पिता को नमन कर कहते हैं - इस संसार में मनुष्य का (चंचल) मन चौराहे पर रखे दीपक के समान डोलता रहता है। जीवित प्राणी की आयु सर्प के जिह्वा-स्फुरण के समान चंचल है और बल गिरि नदी के पूर्ववत (निरन्तर) ह्रास को प्राप्त होता है । लक्ष्मी का विलास गंडमाला(रोग के) सम है और विषय-सुख नखों से खाज खुजलाने के समान है। इसलिए मैं आज ही प्रव्रज्या लूँगा। मैंने सबको क्षमाकर दिया है और लोक से भी अपने प्रति क्षमा चाहता हूँ। अब राग-द्वेष को उपशान्त करूंगा . जम्बूकुमार का उक्त तत्वज्ञानपरक चिन्तन, विषय-सुखों के प्रति अरुचि, संन्यास-ग्रहण की तत्परता आदि अनुभाव 'शम' भाव को उद्बुद्ध कर शान्तरस की अनुभूति कराते हैं। जम्बूकुमार को उनके माता-पिता, परिजन, उनकी वाग्दत्ता वधुएँ और बधुओं के मातापिता दीक्षा से विरत करने हेतु घर में रहने के लिए अनेक तरह से समझाते हैं पर शिवपथ के पथिक के समक्ष वे असफल रहते हैं । उल्टे जंबूकुमार ही अपने माता-पिता आदि को समझाकर उन्हें शान्त कर देते हैं । 42 फिर पदमश्री आदि चारों वाग्दत्ता वधुएँ जम्बूकुमार से एक दिन के लिए विवाह करने का अनुरोध करती है जिसे वे स्वीकार कर लेते हैं । विवाहोपरान्त नववधुओं की श्रृंगारिक चेष्टायें भी उसे विचिलित नहीं कर पाती। उस समय वर का संसार से विरक्तिरूप चिन्तन पाठकों को शान्तरस में अवगाहन करा देता है। पद्मश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री क्रमशः अपने पति को रागरंजित, जनरंजन, मनोरंजन एवं कलरंजन करनेवाली कथाएँ सुनाती हैं और विद्युच्चोर नामक छद्म मामा भी कुमार को सांसारिक विषयों में आसक्त करनेवाली विषय-भोगवर्धक कथाएँ सुनाता है। कुमार वैराग्य
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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