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के सन्दर्भ में एक शब्द 'क्वचिदन्यतोपि' का उल्लेख किया है, राहुल सांकृत्यायनजी के अनुसार इसका आशय स्वयंभू रामायण से ही है। डॉ. रामसिंह तोमर, डॉ. संकटाप्रसाद उपाध्याय तथा डॉ. हरिवंश कोछड़ भी परवर्ती रामकाव्यों पर 'पउमचरिउ' का प्रभाव स्वीकारते हैं।
स्वयंभू यथार्थ जीवन के प्रतिष्ठापक, उदात्त विचारों के पोषक तथा एक क्रान्तिकारी युग कवि थे, उन्होंने 'पउमचरिउ' के माध्यम से हिन्दी साहित्य को कई अर्थों में मौलिक सन्देश दिये
" 'पउमचरिउ' अपभ्रंश भाषा का एक बेजोड़ ग्रंथ है जिसमें महाकवि स्वयंभू ने अपनी काव्य-प्रतिभा को निराले ढंग से अभिव्यक्त किया है। यूं तो इस ग्रन्थ का महत्त्व कई दृष्टियों से है क्योंकि यह अपभ्रंश भाषा में रचित प्रथम रामाख्यानक कृति है जो संस्कृत और प्राकृत की साहित्यिक परम्परा को स्वयं में समेटे हुए है। परन्तु इसके अतिरिक्त भी इसमें कई ऐसे तत्त्व हैं जो नितान्त मौलिक हैं और इस ढंग से अभिव्यक्त किये गये हैं कि उनकी सारगर्भिता मन को अन्दर तक छू जाती है और इन्हीं ऐसे अनूठे तत्त्वों से ही सम्पूर्ण कृति महत्तापूर्ण हो जाती है। 'पउमचरिउ' में वर्णित नीतिवचन, संगीत, नृत्य, अर्थशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, उपमाएँ, पशु-पक्षी, द्यूतक्रीड़ा, भौगोलिकता और भी न जाने क्या-क्या स्वयंभू ने बहुत गहनता से वर्णन किया है।"
"स्वयंभू अपभ्रंश रामकाव्य परम्परा के प्रथम कवि हैं। इनका समय आठवीं शताब्दी ई. है। इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि भी कहा जाता है। पउमचरिउ की रचना धनंजय के आश्रय में हुई थी। इस ग्रंथ में पाँच काण्ड, बारह हजार श्लोक तथा नब्बे संधियाँ हैं । इसमें तिरासी संधियों की रचना स्वयंभू ने तथा शेष सात संधियों की रचना उनके पुत्र त्रिभुवन ने की थी। संधियों को प्रत्येक काण्ड में विभक्त कर दिया गया है, यह वर्गीकरण इस प्रकार है - विद्याधर काण्ड
20 संधि अयोध्या काण्ड
22 संधि सुन्दर काण्ड
14 संधि युद्ध काण्ड
. 21 संधि उत्तर काण्ड
13 संधि संधियाँ कडवकों में विभक्त हैं, पउमचरिउ में कुल 1269 कडवक हैं। स्वयंभूकृत 'पउमचरिउ' संस्कत 'पदमचरित' का अपभ्रंश रूप है। जैन परम्परा में 'पदम' को राम का पर्यायवाची माना जाता है। यद्यपि स्वयंभू ने अपनी इस रामकथा को 'पउमचरिउ' शीर्षक से अभिहित किया है परन्तु 'पउमचरिउ' के अतिरिक्त स्वयंभू ने अपनी इस रामकथा हेतु अन्य नामों का भी उल्लेख किया है - पोमचरिय, रामायणपुराण, रामायण, रामएवचरिय, रामचरिय, रामायणभाव, राघवचरिउ, रामकहा।"
"जीवन-मूल्यों का सन्दर्भ लोकाचार से अन्यान्य भाव से जुड़ा होता है और कृतिकार तथा कृति अगर लोक से परिचित न हों (गहरे रूप में) तो सृजन-कर्म पूर्ण होगा - इसमें संदेह की मात्रा ही अधिक रहेगी। पउमचरिउ का कवि लोक-कवि है और दृष्टि-समर्थ भी।"