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________________ 64 अपभ्रंश भारती - 9-10 प्रजोजन-सिद्धि आदि में जो कलात्मक-सौन्दर्य और काव्य का औदात्य उभरकर आया है वह अनूठा और अन्यतम है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि किस कथानक-रूढ़ि का कहाँ, कब और कैसे प्रयोग होना है, इस कला में वह पूर्ण पारंगत है, निष्णात है। तभी इतनी अधिक और अनेक प्रकार की रूढ़ियों का प्रयोग वह सफलता के साथ कर सका है। यह ठीक है कि इनकी अति भी अनेक स्थलों पर खटकती है। परन्तु कथा को बढ़ाने और धार्मिक-प्रयोजन की सफलता के लिए उसकी यह विवशता भी है। अनेक अवांतर कथाओं का प्रयोग अनेक पात्रों की पूर्व की कथाओं का नियोजन-निरूपण भी इसीलिए किया गया प्रतीत होता है। फिर, संपूर्ण कथा इन्हीं कथानक-रूढ़ियों के सहारे निर्मित होती है, बढ़ती है और समाप्त होती है । इस प्रकार प्रस्तुत प्रबंध कथानक-रूढ़ियों के प्रयोग और उनके सौन्दर्य की दृष्टि से अनूठा और अतुलनीय है। इसके रचयिता की कला-पटुता एवं सौन्दर्य की सूक्ष्म-दृष्टि का सहज परिचय इसमें मिलता है। लोक- जीवन की गहन अनुभूति का भव्य आकर्षण इसकी सरल, सहज और सरस अभिव्यक्ति में अतर्निहित है। परन्तु वह भी जैसे इन्हीं कथानक-रूढ़ियों में सिमट गया है। 1. हिन्दी के आदिकालीन रास और रासक काव्य-रूप - डॉ. त्रिलोकी नाथ प्रेमी', पृ. 123 । 2. हिन्दी-साहित्य का आदिकाल - आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 80। 3. ता सोउ णिवारिवि करहि धम्मु, करकंडु मिलेसइ गलियछम्मु. अइतुरिउ लएविणु पउरदव्वु, अणवरणु देहि तुहुँ दाणु भव्वु । पडिवयणु भडारी तहे भणइ महो वयणहो संसउ कि करहि। कणयामरतेयसमग्गलउ सो अणुदिणु जिणवरू संभरहि ॥ 7.16.10 __- करकंडचरिउ-संपा. डॉ. हीरालाल जैन, पृ. 102 4. वरिसंतइँ जलहरे मंदगंदे, णररूउ करेविणु णियगइंदे। - करकण्डचरिउ, संपा. हीरालाल जैन, 1.10.8, पृ. 8 49-बी, आलोक नगर आगरा - 282010
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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