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अपभ्रंश भारती - 9-10
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अक्टूबर - 1997, अक्टूबर - 1998
करकंडचरिउ में कथानक-रूढ़ियाँ
- डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी'
भारतीय-वाङ्मय में संस्कृत-साहित्य कथा-विधा के विभिन्न रूपों, प्रतिपाद्य की विविधताओं और शैलियों के प्रकारों की दृष्टि से जितना समृद्ध-संपन्न है उतना अन्य कोई परवर्ती साहित्य नहीं। परन्तु अपभ्रंश साहित्य के रचयिताओं ने इस विधा को बहुत सजाया-सँवारा तथा नव्यतम रूप में ढालकर अतुलनीय और बेजोड़ बना दिया, इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता। इनके द्वारा रचित चरिउ तथा रास आदि काव्य-रूपों में भी कोई-न-कोई कथा ही अनुस्यूत रहती है। ये सभी कथाएँ प्रायः पद्यबद्ध मिलती हैं। भविसयत्तकहा, णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, करकण्डचरिउ, गौतमस्वामी रास, भरतेश्वर-बाहुबलि रास, रेवेन्तगिरि रास आदि अपभ्रंश की ऐसी ही रचनाएँ हैं । अपभ्रंश के लाड़ले छन्द दूहा की तरह इन कथा-काव्यों की नूतन, मौलिक और सरस-संपन्न संरचना इसके साहित्य की अपनी अलग विशेषता रही है। इनके रचयिता अधिकांशत: जैन-मुनि और आचार्य ही होते थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि इन वीतरागी महात्माओं की उर्वर-कल्पना ने इस विधा को लौकिक और अलौकिक दृष्टि से सरल-सरस
अपने शीर्ष पर पहुँचा दिया। यह ठीक है कि ये कहानियाँ जैन-धर्म के प्रचारार्थ ही लिखी गईं पर, इनके रूप-संयोजन, कथा-संघटन, शिल्प, काव्य-रूढ़ियों और कथानकरूढ़ियों के कलात्मक प्रयोग ने तो जैनेतर साहित्यकारों और सहदय पाठकों को भी प्रभावित किया है। परवर्ती हिन्दी-साहित्य इनका सदैव ऋणी रहेगा। लोक-जीवन और संस्कृति की सहज-सरस अभिव्यक्ति जैसी इन कथाओं में मिलती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। ये जैन-कवि और आचार्य जन-जीवन के चारित्रिक और नैतिक-स्तर को उन्नत करने के आकांक्षी थे। इसी से अपभ्रंश