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________________ अपभ्रंश भारती 9-10 अयोध्या काण्ड 22 (21-42) सन्धियां सुन्दर काण्ड - 14 ( 43-56) सन्धियां, युद्ध काण्ड - 21 (57-77) सन्धियां, उत्तर काण्ड - 13 (78-90) सन्धियां । डॉ. रामसिंह तोमर का मानना है कि कृति की अन्तिम आठ सन्धियाँ महाकवि के पुत्र ने लिखकर जोड़ दी हैं । 28 - पउम चरिउ का एकमात्र विद्याधर - काण्ड यहाँ पर मैं इस आशय से पुनरावलोकन के लिए रखना चाहूँगा कि हजारीप्रसादजी की यह धारणा कि - " इस काल में दो प्रकार की रचनाएँ प्राप्त हुई हैं - एक तो जैन भण्डारों में सुरक्षित और अधिकांश में जैन प्रभावोत्पन्न परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश की रचनाएँ हैं, दूसरी लोक परम्परा में बहती हुयी आनेवाली, और मूल रूप से अत्यन्त भिन्न बनी हुई लोकभाषा की रचनाएँ". शत प्रतिशत सही है क्या ? अपभ्रंश साहित्यिक परिनिष्ठित जैन प्रभावपन्न और दूसरी तरफ लोकभाषा की रचनाएँ !!! जिस ग्रन्थ के एक काण्ड को मैंने पुनरावलोकन के लिए रखा है यह अपभ्रंश परम्परा में एक प्रसिद्ध रामायण ग्रन्थ है, पूर्णरूपेण जैन प्रभावोत्पन्न । रामचरित मानस-अध्यात्म रामायण और वाल्मिकी रामायण समेत हिन्दी के कुछ और रामचरित विषयक ग्रन्थों को देखने के बाद मेरी धारणा है कि इसका कथा - विन्यास हमारी अपनी मानसिकता के बिल्कुल प्रतिकूल है, पर क्या मात्र इसीलिये मैं इस ग्रन्थ को किनारे रख दूँ। इसमें मैंने एक पाठक की दृष्टि से लोक की तरफ अपभ्रंश के साहित्यिक और शास्त्रीय (कवि की मान्यताओं ) मान्यताओं को देखने का प्रयास भर किया है। विद्याधर काण्ड की शुरूआत में ही महाकवि ने 'जिन जन्म उत्पत्ति'का जो पहला पर्व लिखा है उसमें लोक प्रकृति और लोक प्रवाद का एक हल्का रूप देखने को मिल जाता है। सामान्य . भाषा में यत्नपूर्वक अपनी बात कहनेवाला कवि अपने ग्रामीण भाषा से हीन वचनों के सुभाषित होने की इच्छा रखता है। खल की वन्दना करता है फिर यह भी कहता है कि ऐसे दुष्ट की वन्दना करने से लाभ क्या जिसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। क्या राहु काँपते हुए पूर्णिमा के चन्द्रमा को छोड़ देता है पिसुर्णे किं अब्भात्थिऍण जसु को वि ण रुच्चइ । किं छण-चन्दु महागहेण कम्पन्तु वि मुच्चइ ॥ 1.3.14 ।। तीसरी सन्धि की शुरुआत देखने पर पता चलता है कवि की प्रकृतिपरक लोक रागात्मक दृष्टि जहाँ पर वह एक ही साँस में एक क्रम से साठ-सत्तर से अधिक पेड़-पौधों के नाम से सज्जित उपवन में परम भट्टारक जिन को प्रवेश कराता है। यह दूसरी बात है कि कथा के सूत्र एकदम से अलग हैं पर लोक और प्रकृति के निरीक्षण में कवि कहीं पर स्खलित नहीं हुआ है। कवि कहीं पर बात कर रहा हो उसकी दृष्टि लोक पर रहती है। राजा अगर नगर में प्रवेश नहीं - कर पा रहा है तो स्वयंभू की दृष्टि में वह अनेक लोक-विधानों और कल्पनाओं को जन्म देता है। चौथी सन्धि का आरम्भ ही इसी से होता है कि साठ हजार वर्ष की पवित्र और जयी
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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