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निशा अब जा रही है पहय पओस पणासेंवि णिग्गय। हत्थि-हड व्व सूर-पहराहय॥१॥ णिसियरि व्व गय घोणावतिय। भग्ग-मडप्फर माण-कलङ्किय॥२॥ सूर-भएण णाइँ रणु मेल्लेंवि। पइसइ णयरु कवाडइँ पेल्लेंवि॥३॥ दीवा पज्जलन्ति जे सयणेहि। णं णिसि वलेंवि णिहालइ णयणेहिँ॥४॥ उट्ठिउ रवि अरविन्दाणन्दउ। णं महि-कामिणि-केरउ अन्दउ॥५॥ णं । सञ्झाएँ तिलउ दरिसाविउ। णं सुकइहें जस-पुञ्ज पहाविउ॥६॥ णं मम्भीस देन्तु वल-पत्तिहें। पच्छलें णाइँ पधाइउ रत्तिहें॥ ७॥ णं जग-भवणहों वोहिउ दीवउ।
णाइँ पुणु वि पुणु सो ज्जे पडीवउ॥८॥ पत्ता- तिहुअण-रक्खसहाँ दावि दिसि-वहु-मुह-कन्दरु।
उवरें पईसरेंवि णं सीय गवेसइ दिणयरु॥९॥
पउमचरिउ 41.17
- सूर्य के प्रहारों से आहत होकर हस्तिघटा के समान रात्रि के प्रहर नष्ट होकर चले गये। निशाचरी के समान घोड़े की नाक के समान वक्र, भग्नमानवाली और मान से कलंकित रात्रि सूर के भय से जैसे रण छोड़कर किवाड़ों को खोलकर नगर प्रवेश करती है। शयनकक्षों में जो दीप जल रहे थे, मानो रात्रि अपने नेत्रों से मुड़कर देख रही थी। कमलों को आनन्द देनेवाला सूर्य उठा मानो धरतीरूपी कामिनी का दर्पण हो? मानो सन्ध्या ने अपना तिलक प्रदर्शित किया हो, मानो सुकवि का यश चमक रहा हो, मानो राम की पत्नी को अभय देते हुए जैसे रात्रि के पीछे दौड़ा हो, मानो विश्वरूपी भवन में दीपक जला दिया गया हो। जैसे वह बार-बार वहीं प्रदीप्त हो रहा हो। त्रिभुवनरूपी राक्षस को दिशारूपी वधू की मुखरूपी गुफा को फाड़कर और उदर में प्रवेश कर मानो दिनकर सीतादेवी को खोज रहा है।
- अनु. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन