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अपभ्रंश भारती - 9-10
सकती है। मुझे ऐसा लगता है कि प्रो. तिवारी ने 'कहार' के सादृश्य पर संभावित शब्द 'स्कंधभार' गढ़ लिया है। यह शब्द संस्कृत में दरअसल मिलता नहीं है।
प्रो. रामसरूप शस्त्री का 'कंहार' (कंजल, हार=ढोनेवाला) तो और भी कल्पित लगता है। इसकी तुलना में प्रो. तिवारी का 'स्कंधभार' कहीं ज्यादा संगत प्रतीत होता है। पर, दोनों ही शब्द कृत्रिम प्रतीत होते हैं। कोइला (प्रा.) > कोयला (हि.)
संस्कृत में इसके लिए 'काष्ठांगार', 'कृष्णांगार', 'दग्धकाष्ठ' इत्यादि शब्द प्रचलित हैं। इनमें से किसी शब्द से 'कोयला' की व्युत्पत्ति नहीं साधी जा सकती। अलबत्ता प्राकृत 'कोइला' से हिन्दी 'कोयला' का विकास स्वाभाविक प्रतीत होता है। मध्यवर्ती 'इ' से 'य' और 'य' से 'इ' बनने की प्रवृत्ति सामान्य है; जैसे - अजवायन > अजवाइन, अजवाइन> अजवायन, भाई , भाय, माई (भोजपुरी) > माय, डायन > डाइन इत्यादि। कोल्हुओ (प्रा.) > कोल्हू (हि.)
इसे संस्कृत में 'तेलपेषणी' 'तिलपेषण यंत्रं', 'इक्षु-रसालउ तैल-पेषणी', 'निपीडनयंत्रं', इत्यादि शब्द चलाते हैं। परन्तु, इनमें से किसी से भी 'कोल्हू' की व्युत्पत्ति नहीं हो सकती है। यह तो प्राकृत 'कोल्हुओ' से ही विकसित प्रतीत होता है। 'हु' का दीर्धीकरण तथा 'ओ' का विलोप जैसे मामूली ध्वनि-परिवर्तनों के बाद 'कोल्हू' शब्द अस्तित्व में आ गया। खडक्की (प्रा) - खिड़की (हि.) ___संस्कृत में इसके लिए लघुद्वारम्', 'गवाक्षः', 'वातायन:' इत्यादि अपेक्षाकृत प्रचलित शब्द, हैं। प्रो. रामसरूप शास्त्री ने एक और संभावित शब्द 'खटिक्का' का प्रयोग किया है, जिससे हिन्दी शब्द 'खिड़की' का विकास बताया जा सके। मगर, यह शब्द प्रचलन में नहीं दीखता। इस तरह, 'खिड़की' प्राकृत शब्द 'खडक्की' से विकसित प्रतीत होती है। जिस तरह 'ढ' में बिन्दु लगाकर उत्क्षिप्त ध्वनि 'ढ़' बनती है, उसी तरह 'ड' में बिन्दु लगाकर अन्य उत्क्षिप्त 'ड़' का विकास होता है । 'खडक्की के 'ड' से 'खिड़की' के 'ड़' की विकास-यात्रा यही सिद्ध करती
यंजन 'क्क' में से प्रथम 'क' का लोप होने से 'खिड़की' शब्द की व्युत्पत्ति निष्पन्न होती है।
इसीतरह, प्राकृत 'खड्डा' से हिन्दी 'खड्डा' (गड्ढा) का भी सीधा विकास हुआ है। चाउल (प्रा.) , चावल (हिं)
इसे संस्कृत में 'तण्डुलः' कहते हैं जिससे हिन्दी शब्द 'चावल' का दूर का भी सम्बन्ध नहीं बनता। इसलिए पूरी संभावना है कि यह प्राकृत 'चाउला' का ही विकसित रूप है। मध्यवर्ती उ ) व की विकास-प्रवृत्ति असहज नहीं लगती। हिन्दी में इसकी उलट क्रिया मिलती है; जैसे – राव > राउ, ठाँव ) ठाँउ आदि।