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अपभ्रंश भारती
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जिमि लोण विलिज्जइ पाणिपह तिमजड़ चित्त विलिज्ज ।
समरसि हूवइ जीवड़ा काह समगहि करिज्ज ॥ 176 ॥ पाहुड दोहा
ठीक इसी की प्रतिध्वनि कबीर में देखें
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मन लागा उनमन सौ उनमन मनहिं विलग । लूँण विलगा पाणया, पांणी लूण विलग ॥
(2) वासना - दमन की जगह वासना-शोधक और उसकी सहजानंद में स्वाभाविक परिणति के संकेत
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बौद्ध सिद्धों के समकालीन इन जैन संतों में भी चरमावस्था के लिए 'सहजानंद' शब्द का प्रयोग मिलता है। संतों ने तो शतशः सहस्रशः 'सहज' की बात कही है। भारतीय साधनधारा में जैन मुनियों के 'कृच्छू' के विपरीत ही 'सहज' साधना और साध्य की बात संभव है प्रचलित हुई हो। अध्यात्म साधना में मन का एकाग्रीकरण विक्षेप मूल वासना या काषाय के शोषण से तो' श्रमण' मानते ही थे, दूसरे प्रवृत्तिमार्गी आगमिक साधक ऐसी कुशलता सहज पा लेना चाहते थे कि वासनारूपी जल में रहकर ही विपरीत प्रवाह में रहना उसे आ जाय । साधकों को यह प्रक्रिया दमन की अपेक्षा अनुकूल लगी। तदर्थ वासना-जल की अधोवर्ती स्थिति का ऊर्ध्वक अपेक्षित था। जैन साधकों के अपभ्रंश काव्य में तो संकेत खोजे जा सकते हैं पर भाषाकाव्य में कबीर के बाद स्पष्ट कथन मिलने लगते हैं। जैन-मरमी आनंदघन की रचनाएँ साक्षी हैं। वे कहते हैं
आज सुहागन नारी, अवधू आज सुहागन नारी । मेरे नाथ आय सुध लीनी, कीनी निज अंगचारी । प्रेम प्रतीति राग रुचि रंगत, पहिरे झीनी सारी । मँहिदी भक्ति रंग की राँची, भाव अंजन सुखकारी । सहज सुभाव चुरी मैं पहिनी, थिरता कंकन भारी ॥ इत्यादि
इन पंक्तियों में क्या 'संतों' का स्वर नहीं है ? संतों की भाँति इन अपभ्रंश जैन कवियों में भी 'सहज' शब्द का प्रयोग साधन और साध्य के लिए हुआ है। आनंदतिलक ने 'आणंदा' नामक़ काव्य में स्पष्ट कहा है कि कृच्छू साधना से कुछ नहीं हो सकता, तदर्थ 'सहज समाधि' आवश्यक है
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जापु जव वहु तव तवई तो वि ण कम्म हणेइ ।
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सहज समाधिहिं जाणियइ आणंदा जे जिण सासणिसारु ।
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छीहता ने तो चरम प्राप्य को 'सहजानंद' ही कहा है
हउं सहजानंद सरूव सिंधु
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इसी प्रकार मुनि जोगीन्दु ने भी योगसार में कहा है कि सहजस्वरूप में ही रमण करना चाहिए -
सहज सरूवइ जइ रमहि तो पावहि सिव सन्तु ।
सहज स्वरूप में जो रमता है वही शिवत्व की उपलब्धि कर सकता है।
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