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अपभ्रंश भारती -8
पर अत्थमिउ
मित्तविओएँ णलिणि महासइ, कण्णिय चूडुल्लउण पयासइ । अइसोएँ ललियंगइँ सिढिलइ अलिणयणउ पंकयमुहु मइलइ । तहुहेण दुहियाइँ व चक्कइँ, इत्थियसंगु विवज्जिवि थक्कईं। अज्ज वि सो तहेव कमु चालइ, इय पडिवण्णउ विरलउ पालइ । कुमुअसंड दुजणसमदरिसिअ, मित्तविणासणेण | वियसिय । पहाइवि लोयायारे सुइहर, संझावंदणकज्जें दियवर । सूरहों देहिँ जलंजलि णावइ, पर अत्थमिउ ण तं फुडु पावइ ।
णिसिवेल्लिए णह मंडउ छाइउ, जलहरमाल' णाइँ विराइउ । घत्ता - तो सोहइ उग्गमिउ णहें ससिअद्धउ विमलपहालउ । णावइ लोयहँ दरिसियउ णहसिरिएँ फलिहकच्चोलउ ॥
- सुदंसणचरिउ, 8.17
- मित्र (सूर्य) के वियोग में मुरझाई हुई नलिनी के पुष्प-कोष का विकास उसी प्रकार नहीं हुआ जिस प्रकार अपने मित्र (प्रियतम) के वियोग में एक महासती लज्जित होकर अपना चूड़ाबंध प्रकट नहीं करती। वह अत्यन्त शोक से अपने ललित अंगों को शिथिल और भ्रमररूपी नयनों से युक्त पंकजरूपी मुख को मलिन कर रही थी। उसी के दुःख से दुखित होकर मानों चकवे अपनी चकवियों का संग छोड़कर रह रहे थे। आज भी चकवा उसी क्रम को चला रहा है। इस प्रकार अपनी स्वीकृत बात को कोई विरला ही पालन करता है। कुमुदों के समूह दुर्जनों के समान दिखायी दिये, चूँकि वे मित्र (सूर्य या सुहृद) का विनाश होने पर भी विकसित हुए।
स्नान करके श्रुतिधर, लोकाचार से तथा द्विजवर (श्रेष्ठ ब्राह्मण) सन्ध्या-वन्दन हेतु सूर्य को मानों जलाञ्जलि देने लगे। किन्तु अस्त हो जाने के कारण स्पष्टत: वह उसे पा तो नहीं रहा था। रात्रि का समय हो जाने से नभोमण्डल (अंधकार से) आच्छादित हो गया, मानों वह मेघमालाओं से विराजित हो गया हो। उस समय आकाश में अपनी विमल प्रभा से युक्त अर्द्धचन्द्र उदित होकर ऐसा शोभायमान हुआ मानों नभश्री ने लोगों को अपना स्फटिक का कटोरा दिखलाया हो।
अनु. - डॉ. हीरालाल जैन