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अपभ्रंश भारती
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युद्ध,
ईर्ष्या हो या डाह, पारस्परिक संघर्ष हो या युद्ध सभी में लौकिक निजन्धरी (लिजेन्डरी) कहानियों का सरस सहारा लिया गया है। यह अपने देश की, अपनी खास, चिरपरिचित प्रथा रही है। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी का तो यहाँ तक कहना है कि "कभी-कभी ये कहानियाँ पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों के साथ घुलादी जाती हैं। यह तो न जैनों की निजी विशेषता हैन सूफियों की । हमारे साहित्य के इतिहास में एक गलत और बेबुनियाद बात यह चल पड़ी है कि लौकिक प्रेम-कथानकों को आश्रय करके धर्म-भावनाओं का उपदेश देने का कार्य सूफी कवियों ने आरम्भ किया था। बौद्धों, ब्राह्मणों और जैनों के अनके आचार्यों ने नैतिक और धार्मिक उपदेश देने के लिए लोक-कथानकों का आश्रय लिया था । भारतीय संतों की यह परम्परा परमहंस रामकृष्णदेव तक अविच्छिन्न भाव से चली आई है केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रन्थों को साहित्य-सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो हमें आदिकाल से भी हाथ धोना पड़ेगा, तुलसी - रामायण से भी अलग होना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा और जायसी को भी दूर से दण्डवत् करके विदा कर देना होगा ।" एक प्रकार से देखा जाय तो अपभ्रंश की रचनाएँ लोक और समाज से जुड़कर . अपना फलक ही विस्तृत नहीं करती, मन- चित्त और मस्तिष्क को उद्वेलित और प्रभावित भी करती हैं। धर्म की रसात्मक अनुभूति बनती है । चित्त को परिष्कृत और उदात्त बनाती हैं। समाजसंस्कृति और साहित्य का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध बनाती हैं ।
संस्कृति का उद्देश्य सनातन काल से श्रेष्ठ की साधना और सत्य का संधान रहा है। सत्असत्, इष्ट-अनिष्ट, श्रेय - प्रेय, शुभ -अशुभ, त्याग-भोग, ऐहिक-आध्यात्मिक आदि के बीच होनेवाले शाश्वत संघर्ष में वह श्रेयस्कर सार्थकता की खोज करता रहा है । अन्धकार से प्रकाश, अविवेक से विवेक और अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ता रहा है। दिव्य आनन्दभूमि तक पहुँचने की चेष्टा करता रहा है। मानव की इस विकासधर्मी जययात्रा का मंगलगान साहित्य के माध्यम से ही होता रहा है। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ऐसे चिंतक और विचारक हैं जिन्होंने साहित्य समाजशास्त्र के बहुतेरे विचार-बिन्दुओं को जगह-जगह संकेतित किया है पर संकीर्णता के साथ नहीं अपितु गहन चिंतन और उदात्तता के साथ। उन्होंने साहित्य को सामाजिक वस्तु मानते हुए उसे सामाजिक मंगल का विधायक माना । उनका स्पष्ट मत है कि " जो साहित्य हमारी वैयक्तिक क्षुद्र संकीर्णताओं से हमें ऊपर उठा ले जाय और सामान्य मनुष्यता के साथ एक कराके अनुभव करावे, वही उपादेय है। यह सत्य है कि वह व्यक्ति विशेष की प्रतिभा से ही रचित होता है; किन्तु और भी अधिक सत्य यह है कि प्रतिभा सामाजिक प्रगति की ही उपज है। एक ही मनोराग जब व्यक्तिगत सुख-दुःख के लिए नियोजित होता है तो छोटा हो जाता है, परन्तु जब सामाजिक मंगल के लिए नियोजित होता है तो महान हो जाता है; क्योंकि वह सामाजिक कल्याण का जनक होता है। साहित्य में यदि व्यक्ति की अपनी पृथक् सत्ता, उसकी संकीर्ण लालसा और मोह ही प्रबल हो उठें तो वह साहित्य बेकार हो जाता है। भागवत में मनोरोगों के इस सामाजिक उपयोग को उत्तम बताया गया है; क्योंकि इससे सबका मूल-निषेचन होता है, इससे मनुष्यता की जड़ की सिंचाई होती है - सर्वस्य तद्भवति मूलनिषेचनं यत ।”
अपभ्रंश का साहित्य चाहे जैन हो या सिद्ध अथवा इहलौकिक, सर्वत्र उपर्युक्त सामाजिक भावना से संचरित-सम्प्रेषित हुआ है। उसका साहित्य समाज के हित के लिए समर्पित है, उसका