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________________ अपभ्रंश भारती - 8 नवम्बर, 1996 अपभ्रंश साहित्य की संस्कृति और समाज-शास्त्र - - डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय अपभ्रंश भाषा और साहित्य प्रारम्भ से विक्षोभ, असंतोष, असहमति और प्रतिपक्ष का पक्षधर रहा है। अपभ्रंश का कवि अपने समय और समाज की प्रतिगामी शक्तियों को पहचानते हुए गतिशील प्रक्रिया को शक्ति और सामर्थ्य देता रहा है। उसे अपने परिवेश और परिस्थितियों से पूर्णत: संतुष्टि नहीं है । अत: वह भाषा, भाव-संपदा और मानवीय मूल्य के धरातल पर बेहतर और श्रेयस्कर की माँग करता रहा है। सामाजिक धरातल पर सर्वोत्तम की स्थापना का पूरा प्रयास करता रहा है। सांस्कृतिक प्रयोजन में देवचरित के स्थान पर शलाका पुरुषों के चरित, सामंती जीवन की जगह लोकजीवन की उपस्थिति और दार्शनिक परिवेश में मानवतावादी दृष्टिकोण को रेखांकित करता रहा है। यद्यपि यह अपभ्रंश कवियों के लिए एक बड़ा दुरूह और कठिन कार्य था पर वे अपनी निर्भ्रात दृष्टि, अडिग एवं निर्भय विश्वास से तथा अपनी रचनात्मक क्षमता से उसे संभव बनाते रहे हैं। यही कारण है अपभ्रंश का जो भी साहित्य मिला उसी से परवर्ती साहित्य को न केवल सही ढंग से समझने की शक्ति ही मिली है, अपितु पूरा ऐतिहासिक दृष्टिकोण ही बदल गया है। कड़ी ही नहीं जुड़ी है वरन नींव भी पुख्ता हुई है। एक क्रमिक विकास, ऐतिहासिक भूमिका की पृष्ठभूमि तैयार हुई है, अब यह बात प्रायः सभी साहित्येतिहासकारों ने मान ली है । आखिर वह कौनसी शक्ति है अपभ्रंश की, कौनसा वृहत्तर अनुभव रचना-संसार है उसका जिसने यह महती भूमिका तैयार की है ?
SR No.521856
Book TitleApbhramsa Bharti 1996 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1996
Total Pages94
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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