SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश-भारती 5-6 59 प्रिय के आगमन की बात श्रुतिमधुर होती है। वह नायिका के विरह-दग्ध हृदय में नयी जान फूंक देती है - पिउ आइउ सुअ वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ठ ।। तहो विरहहो नासंतअहो धूलडिआ वि न दिट्ठ ॥" - 'प्रिय आया' यह वार्ता सुनी; ध्वनि कान में पैठी। (तब) उस विरह के नष्ट होते ही धूल भी न दीखी । _ जब कृशता के कारण वलयावली के गिरने के भय से धन्या भुजा उठाकर जाती है तब कविहृदय को ऐसा प्रतीत होता है मानो वह वल्लभ के विरह के महासरोवर की थाह ले रही हो - वलयावलि निवडण-भएण धण उद्धब्भुअ जाइ। वल्लह-विरह-महादहहो थाह गवेसइ नाइ । कलहान्तरिता नायिका को पछतावा हो रहा है कि उसने संध्या-समय प्रिय से कलह कर लिया। उसका कहना है कि विनाश के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है - __ अम्मडि पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि । घई विवरीरी बुद्धडी होइ विणासहो कालि 1 जब गोरी बाट जोहती हुई, आँसू से कंचुक को गीला और सूखा करती हुई दीखती है तब सारा प्रसंग निम्नलिखित दोहे में अपना लावण्य दिखाता है - पहिआ दिट्ठी गोरडी ट्ठिी मग्गु निअन्त । अंसूसासेहिं कंचुआ तिंतुव्वाण करंत ॥22 हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण में उद्धृत अपभ्रंश के कुछ दोहों में नारी न केवल विरहिणी के रूप में प्रकट हुई है; अपितु वीरांगना के रूप में भी दिखाई देती है। यदि विरहिणी-रूप नारीहृदय की कोमलता का परिचायक है तो वीरांगना-रूप उसकी तेजस्विता का समुद्घाटन कर देता है। वीरांगनाओं के इतिहास के अवलोकन से विदित होता है कि उन्होंने अपने पतियों में उत्साह की उमंगें बराबर भरी हैं और अपना सब-कुछ लुटाकर भी अपने पतियों का वीरत्व सुरक्षित रखा है और इसी में अपना वीरत्व भी प्रकाशित किया है। वीरांगना के दो रूप अवलोकनीय हैं - वीरमाता और वीरपत्नी। हेमचन्द्र के प्राकृतव्याकरण में उद्धृत अपभ्रंश के कतिपय दोहों में वीरपत्नी के हृदयोद्गार उच्च सुनाई देते हैं। __जो सैकड़ों लड़ाइयों में बखाना जाता है उस अति मत्त त्यक्तांकुश गजों के कुम्भस्थलों को विदीर्ण करनेवाले अपने कंत को दिखाते हुए एक वीरांगना गर्व का अनुभव करती है। यथा - संगर-सएहिँ जु वण्णिअइ देक्खु अम्हारा कंतु ।। अइमत्तहं चत्तंकुसहं गय कुम्भई दारंतु ॥ कायरता पर दिग्विजय वीरांगना की महान् विशेषता है। उसे अपने पति की मृत्यु पर शोक . के स्थान पर हर्ष अधिक होता है। वह कहती है -
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy