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________________ 30 अपभ्रंश-भारती 5-6 इन फागु-काव्यों में श्रृंगार का चमत्कार तो प्रदर्शित किया ही जाता है, किन्तु अंत की ओर बढ़ते हुए उनमें एक नया मोड़ उभरने लगता है; श्रृंगार का स्थान शांत तथा निर्वेद लेने लगते हैं और नायक जैनधर्म में दीक्षित हो जाता है। सांसारिक काम के ऊपर सात्विक वैराग्य की यह विजय ही इन जैन फागु-काव्यों का मूल उद्देश्य है। लोक-प्रचलित इस फागु-शैली को अपनाने की एक मनोवैज्ञानिक आधारभूमि भी हो सकती है और वह यह कि बसंत ऋतु ही सर्वाधिक कामोद्दीपक ऋतु है, कामदेव के पंचबाण बड़े-बड़े तपस्वियों को भी इसी ऋतु में विचलित करते हैं। अतः संयम और इंद्रिय-निग्रह की कसौटी इसी ऋतु को कहा जा सकता है। जैन मुनि अपनी तपश्चर्या में इस दृष्टि से सचमुच आदर्श और अनुकरणीय होते हैं। तभी तो यहाँ वेश्याओं को भी पात्र बनाया गया है। वे मुनियों के तप को भंग करने का हरसंभव प्रयास करती हैं, परन्तु अंत में काम को इनके संयम के समक्ष पराजित होना ही पड़ता है और इसी के साथ धर्म-दीक्षा से इनका अन्त हो जाता है। इस प्रकार फागु-काव्यों की यह परम्परा एक ओर लोक-जीवन के मध्य प्रसार पाती हुई बढ़ रही थी तो दूसरी ओर जैन मुनियों द्वारा धर्म-प्रचार में इसका भरपूर उपयोग हो रहा था। 15वीं सदी तक आते-आते तो वैष्णव कवियों के होरी, धमार तथा फागु आदि राग-रागिनियों और विविध वाद्य-यंत्रों के13 सुर-ताल के साथ इनका रूप और भी अधिक सज-सँवर गया। रूपवती स्त्रियाँ बसन्तोत्सव पर फागु खेलती थीं। इसी बीच इनके रचयिताओं को रूप-चित्रण का अवसर भी मिल जाता - पीन पयोहर अपच्छर गूजर धरतीय नारि, फागु खेलइ ते फरि-फरि नेमि जिणेसरि बारि ॥5॥14 . मयण खग्ग जिम लहलहंत जस वेणी दंडो, सरलउ तरलउ सामलउ रोमावलि दंडो। अह निरतीय कज्जलरेह नयणि मुहकमलि तंबोलो, नगोदरकंठलउ कंठि अनु हार विरोलो । मरगदजादर कंचुयउ फुडफुल्लंह माला, करि कंकण मणिवलयचूड खलकावइ बाला । रुणझुण ए रुणझुण ए रुणझुण ए कडि घघरियाली, रिमिझिमि रिमिझिमि रिमिझिमि ए पयनेउर जुयली ।" और श्रृंगार रस की पूर्णता के लिए उसके संयोग और वियोग दोनों पक्षों के चित्रण का सुयोग भी प्राप्त हो जाता। संयोग की घड़ियों में नख-शिख का मनभावन आकलन जहाँ परम्परागत काव्यरूढ़ि का संकेत करता है वहाँ उसकी मौलिक उद्भावनाओं में कवि-कर्म का साक्षात्कार भी होता है। इसी प्रकार विप्रलंभ के निरूपण में भावनाओं का तारतम्य विरहिणी नायिका की अंतर्दशा को अभिव्यक्त करने में पूर्ण सक्षम रहा है। यथा - .
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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