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________________ अपभ्रंश - भारती 5-6 जनवरी - जुलाई - 1994 27 फागु-काव्य : विधा और व्याख्या - डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी' - भारतीय वाङ्मय में संस्कृत-साहित्य विविध काव्य-रूपों और विधाओं की दृष्टि से जितना समृद्ध है उसका परवर्ती अपभ्रंश - साहित्य अपेक्षाकृत और भी अधिक सम्पन्न रहा है। कारण, प्रथम जहाँ काव्यशास्त्रीय विधाओं का ही अनुसरण-अनुकरण करता रहा है वहाँ अपभ्रंश की लोकानुरागिनी साहित्य-परंपरा ने एक पग और अग्रसर होकर लोक-साहित्य तथा लोक-शास्त्र की अनगिन अभिव्यक्त एवं अनभिव्यक्त व्यंजना- शैलियों को अपनाकर सचमुच नूतन काव्यसंसार ही रच डाला। अपभ्रंश के इन रचनाकारों में एक ओर जैन मुनि एवं आचार्य हैं तो दूसरी ओर सिद्ध-साहित्य के प्रणेता चौरासी सिद्ध तथा नाथ संप्रदायी। इनके अतिरिक्त अनेक ऐसे भी कृतिकार हैं जिनका न तो जैनधर्म तथा मुनियों से कोई संबंध है और न सिद्धों के धर्म-प्रयोजन से; बल्कि जिन्होंने लोक-जीवन और समाज के मध्य से ही अपने काव्य-सृजन के मार्ग का संधान किया है। सिद्ध-साहित्य परवर्ती काल में बौद्ध-धर्म की वज्रयानी सहजयानी शाखा के प्रभाव से गुह्य एवं लैंगिक साधनाओं की ओर उन्मुख होने से अपनी अभिव्यक्ति के निमित्त 'संधा भाषा' के प्रयोग के कारण जन-जीवन से कटने लगा था और नाथ संप्रदाय तो लोक-रस के अभाव के कारण पहले से ही सीमित था । किन्तु जैन मुनियों का साहित्य लोकोन्मुखी होने के कारण जैन और जैनेतर सभी के लिए सरस एवं आकर्षक था। वीतरागी होकर भी इन जैन मुनियों
SR No.521854
Book TitleApbhramsa Bharti 1994 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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