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अपभ्रंश - भारती 5-6
जनवरी - जुलाई - 1994
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फागु-काव्य : विधा और व्याख्या
- डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी'
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भारतीय वाङ्मय में संस्कृत-साहित्य विविध काव्य-रूपों और विधाओं की दृष्टि से जितना समृद्ध है उसका परवर्ती अपभ्रंश - साहित्य अपेक्षाकृत और भी अधिक सम्पन्न रहा है। कारण, प्रथम जहाँ काव्यशास्त्रीय विधाओं का ही अनुसरण-अनुकरण करता रहा है वहाँ अपभ्रंश की लोकानुरागिनी साहित्य-परंपरा ने एक पग और अग्रसर होकर लोक-साहित्य तथा लोक-शास्त्र की अनगिन अभिव्यक्त एवं अनभिव्यक्त व्यंजना- शैलियों को अपनाकर सचमुच नूतन काव्यसंसार ही रच डाला। अपभ्रंश के इन रचनाकारों में एक ओर जैन मुनि एवं आचार्य हैं तो दूसरी ओर सिद्ध-साहित्य के प्रणेता चौरासी सिद्ध तथा नाथ संप्रदायी। इनके अतिरिक्त अनेक ऐसे भी कृतिकार हैं जिनका न तो जैनधर्म तथा मुनियों से कोई संबंध है और न सिद्धों के धर्म-प्रयोजन से; बल्कि जिन्होंने लोक-जीवन और समाज के मध्य से ही अपने काव्य-सृजन के मार्ग का संधान किया है। सिद्ध-साहित्य परवर्ती काल में बौद्ध-धर्म की वज्रयानी सहजयानी शाखा के प्रभाव से गुह्य एवं लैंगिक साधनाओं की ओर उन्मुख होने से अपनी अभिव्यक्ति के निमित्त 'संधा भाषा' के प्रयोग के कारण जन-जीवन से कटने लगा था और नाथ संप्रदाय तो लोक-रस के अभाव के कारण पहले से ही सीमित था । किन्तु जैन मुनियों का साहित्य लोकोन्मुखी होने के कारण जैन और जैनेतर सभी के लिए सरस एवं आकर्षक था। वीतरागी होकर भी इन जैन मुनियों