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________________ 78 . अपभ्रंश-भारती-2 स्वयम्भू ने आठ प्रकार के अर्धसम संकीर्ण चतुष्पदी छंदों का विवेचन किया है । संकीर्ण चतुष्पदी में प्रथम-द्वितीय तथा तृतीय-चतुर्थ चरण समान तथा बराबर मात्रा के होते हैं । इसके प्रत्येक चरण में 7 से लेकर 17 तक की मात्राएँ होती हैं । हेमचन्द्र (6.21) ने भी संकीर्ण चतुष्पदी छंदों का विवेचन किया है । शेष द्विपद्याः' शीर्षक अध्याय में स्वयम्भू ने निर्देशित किया है कि जिसके प्रत्येक चरण में 27 से लेकर 41 तक की मात्रा हो उसे 'धृवक' के रूप में व्यवहृत किया जा सकता है तथा मंगल, अनुनय, भूतकालीन घटनाओं की व्याख्या एवं कथन के सारांश के रूप में भी इनका प्रयोग सम्भव है। 'उत्यकादयः' अध्याय में उत्थक, मदनावतार, ध्रुवक, सात प्रकार की छड्डणिका, तीन प्रकार का घत्ता, पज्झटिका और रास का वर्णन है । उत्थक का विवेचन स्वयम्भू के अतिरिक्त किसी भी अन्य छन्दशास्त्री ने नहीं किया है । मदनावतार का वर्णन हेमचन्द्र ने खंजक प्रकरण के अन्तर्गत किया है किन्तु स्वयम्भू ने इसका स्वतंत्र विवेचन किया है । मदनावतार को नन्दितादय (76) ने चन्द्रानन नाम दिया है । 'धुवक चतुष्पदी छंद है और इसके प्रत्येक चरण में 9 मात्राएं होती हैं । स्वयम्भू ने सात प्रकार की छड्डणिका का उल्लेख किया है जिनमें पाँच अर्धसम चतुष्पदी हैं, एक विषम चतुष्पदी और एक षट्पदी है । इसी प्रकार तीन प्रकार के घत्ता में एक अर्धसम चतुष्पदी और सर्वसम चतुष्पदी है । स्वयम्भू के अनुसार संधि के प्रारम्भ में घत्ता, द्विपदी, गाथा, अडिल्ला, मात्रा या पज्झटिका होनी चाहिए और कडवक के अन्त में छड्डुणिका का प्रयोग होना चाहिए (स्वयंभूछंद, उत्तर भाग-8.20) । स्वयम्भू ने लिखा है कि घत्ता, छड्डणिका और विदारिका के अनेक प्रकार होते हैं । वस्तुतः अपभ्रंश प्रबन्ध काव्यों में कडवक के अन्त में भी घत्ता देने का विधान है। भविसयत्तकहा (संधि 12, 13, 14) में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं । स्वयम्भू ने तीन प्रकार के घत्ता छंद का उल्लेख किया है - दो सर्वसम चतुष्पदी और एक अर्धसम चतुष्पदी । एक सर्वसम चतुष्पदी घत्ता के प्रत्येक चरण में 12 मात्राएँ होती हैं । दूसरे प्रकार का सर्वसम चतुष्पदी घत्ता छंद वह है जिसके प्रत्येक चरण में चार चतुर्मात्रा (प्रायः भगन SI) के क्रम से 16 मात्राएं होती हैं । तीसरे प्रकार का अर्धसम चतुष्पदी घत्ता छंद वह है जिसके विषम चरणों मे 9 और सम चरणों में 14 मात्राएँ होती हैं। 'छदकोश' के रचयिता राजशेखर (छंदकोश, 43) ने एक अन्य अर्धसम चतुष्पदी घत्ता का रूप बताते हुए लिखा है कि इसके विषम चरणों में 18-18 तथा सम चरणों में 13-13 मात्राएं होती हैं। __ पद्धडिका, पज्झटिका या पद्धडिया अपभ्रंश काव्यों का प्रिय छंद रहा है । बौद्ध सिद्धों के चर्यापदों से लेकर मध्य-युगीन हिन्दी कविता तक इसका प्रयोग होता रहा है । यह सोलह मात्राओं का सम चतुष्पदी छंद है । प्राकृत पैंगलम (1.125) के अनुसार अन्तिम चतुष्कल का जगण होना अनिवार्य है । स्वयम्भू ने जगणान्तविधान को आवश्यक नहीं माना है । स्वयम्भू के अनुसार - विहिं पअहिं जमउ ते णिम्म अति । कडवअ अट्ठहिं जमअहिं रअन्ति ॥ (उत्तर भाग, 8/15) अर्थात् दो पदों का एक यमक होता है और आठ यमकों का एक कडवक । इस हिसाब से 16 पक्तियों का एक कडवक होना चाहिए किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता । हेमचन्द्र इस संबंध में अधिक व्यवहारवादी हैं । उनके अनुसार चार पद्धडिया यानी आठ पक्तियों का एक कडवक
SR No.521852
Book TitleApbhramsa Bharti 1992 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size11 MB
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