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अपभ्रंश-भारती-2
अंधकार फैला देखकर पडिता वहाँ गई, जहाँ सेठों का अग्रणी सुदर्शन ध्यान योग में स्थित था । वह प्रणाम करते हुए उसके पैरों से लग गई और बोली - यदि तुम्हारे धर्म में
जीवदया है । (2) अणुरायवतीहि बिद्दाणगत्तीहें,
करि जीवरक्खा तुम रायपत्तीहें । विरहाहिट्ठीहे हे सामि कि तेण, णहि होइ जीवास मेलावमतेण ॥
- वही तो तुम उस अनुरागवती खिन्नगात्री राजपत्नी के जीव की रक्षा करो । हे स्वामी, जिसके द्वारा विरहाग्नि से जलती हुई स्त्री के जीवन की आशा न हो सके, उस मेलापक मंत्र
से क्या लाभ ? (3) म चिराहि ए एहि उम्मीलणेत्ताई,
लहु गपि आलिगि सोमालगत्ताई। भणु कस्स तुट्टो जिणो देसि णाणस्स, लइ अज्ज जायं फल तुज्झ माणस्स ॥
- वही अतएव देर मत करो । आओ, आओ, शीघ्र चलकर उस उन्मीलित नेत्र, सुकुमारगात्री का आलिंगन करो । भला कहो तो, जिनेन्द्र संतुष्ट होकर भी तुम्हें कौन-सी बात प्रदान
करेगा ? लो, आज ही तुम्हारे ध्यान का फल तुम्हें मिल रहा है । (4) तो महितलपत विज्जाहरिदेण,
उक्खित्तहत्येण ण वण करंदण । नवनिसियपहरणफडाडोयनाएण, पंचमुहगुजारसनिहनिनाएण ॥
- जंबुसामिचरिउ 5.14.6 तब पृथ्वी पर ठोकर मारते हुए, बनैले हाथी के समान हाथ (पक्ष में सैंड) उठाये हुए नाग के फणाटोप के समान नये शान दिये हुए शस्त्र को लिये हुए सिंह-गर्जन के समान
निनाद करके उठते हुए । (5) लइ लेह लेहु ति आणत्तभिच्चेण,
उटुंतसतेण संगरदइच्चेण । ता उट्ठिया द्रुदप्पिट्टबलल?, हणु हणु भयंताण खणराय सहसट्ट ।
- वही, 5.14.8 - उस संग्राम दैत्य के द्वारा अपने भृत्यों को यह आज्ञा दी जाने पर कि ले लो । ले
लो । (पकड़ो । पकड़ो !) बल में प्रधान (श्रेष्ठ बलशाली) अष्ट सहस्र दुष्ट व दर्पिष्ठ
(गर्वीले) खेचर मारो-मारो, कहते हुए उठे । (6) उग्गिणकरवाल संयाण थक्केहि
नागत कोतेहि भामत चक्केहिं । धणगुणनिवेसत कड्ढंतवाणेहि, हेतु समारद्ध अमुणिय पमाणेहिं ।
- जबुसामिचरिउ 5.14.10